Saturday 17 September 2022

 

साहित्य का कर्तव्य 

"कोरोना को हमारे देश में लगभग तीन साल हो गए हैं। आरम्भ में लगता था जैसे अब सबकुछ परिवर्तित -परिमार्जित हो जाएगा। दूषित मानसिकता और कृत्य सभी गर्त में चले जाएंगे। पर जैसे-जैसे स्थिति समान्य होने लगी वैसे-वैसे नकारात्मकता पुनः अपने चरम पर आने लगी है। पिछले वर्षों से समाज में कुछ विचार ऐसे रच-बस गए हैं जैसे दूध में मिलावटी दूषित पदार्थ। समाज विरोधी कार्य और मनमानी करने की स्वछंदता को ही कुछ वर्ग ने प्रगति की सीढ़ी बना लिया है। पुराने विचार और मानसिकता परिवर्तित होना बुरा नहीं है परन्तु उनका समयानुसार परिमार्जन किए बिना त्यागना या उनको अनुचित ठहरना भी उचित नहीं है। कुछ ऐसा ही इन दो कहावतों -"खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देख कर" और "पुस्तक का ऊपरी आवरण देखकर पुस्तक के बारे में फैसला ना करें", के साथ हो रहा है। कहीं भी किसी भी विवाद का कारण बने हुए हैं ये दोनों वाक्य। इस लेख में बीते जमाने के दो सशक्त लेखकों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही उनके विषय की औचित्यता पर बात की गई है।"

02 जुलाई 2021 को आई फिल्म "हसीन दिलरुबा " जो ब्रिटिश लेखक रोआल्ड डहल ने 1954 में लिखी। जिसे प्रकाशन की अनुमति नहीं मिली लेकिन कुछ समय बाद हार्पर की पत्रिका में इसे प्रकाशित कर दिया गया। कुछ ऐसा ही इस फिल्म में दिखाया गया कि फुटपाथ से खरीदे सस्ते साहित्य को पढ़कर एक बेहद डरावनी और निर्मम घटना को अंजाम दिया गया। 

 कहने का तातपर्य इतना मात्र है कि साहित्य का अर्थ, जो जी में आए वो कलम और कागज को बताना नहीं है साहित्य का कर्तव्य है कि समाज के लिए क्या देय है और क्या नहीं ,इसका ज्ञान-भान साहित्यकार को रखना आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर समाज की दशा ठीक वैसी ही रहेगी जैसे एक अबोध बालक के हाथ में, धार की ओर से पकड़ा हुआ चाक़ू अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप प्रकर्तिवादी रहना चाहते हैं या यथार्थवादी।  

👉कुछ ऐसा ही साहित्य आज से 100 वर्ष पहले समाज को मिलना शुरू हुआ होगा। सआदत हसन मंटो 11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955 उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानियों में अश्लीलता के आरोप के कारण मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था, जिसमें से तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और बनने के बाद, लेकिन एक बार भी कुछ साबित नहीं हो पाया। उनकी बदनाम कहानियों पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया। बार-बार उनकी उन पांच कहानियों धुंआ, बू, ठंडा गोश्त, काली सलवार, ऊपर नीचे और दरमियां की बात की गई है। जिसकी वजह से उनपर अश्लीलता फैलाने का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया। 

लगभग 19 वर्ष बाद एक और साहित्यकार का जन्म हुआ -श्रीकांत वर्मा 18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986 का जन्म बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हुआ। वह गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ',1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1963 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये। उपन्यास - दूसरी बार (1968),कहानी-संग्रह - झाड़ी (1964), संवाद (1969), घर (1981), दूसरे के पैर (1984), अरथी (1988), ठंड (1989), वास (1993) साथ (1994) और कल । यात्रा वृत्तांत - अपोलो का रथ (1973)।संकलन - प्रसंग।आलोचना – जिरह (1975)। साक्षात्कार आदि एक विस्तृत सूची है गद्य साहित्य की भी। 

                                                                              


श्रीकांत वर्मा एवं  मंटो 

जाने के इतने सालों बाद ,ज़िंदगी भर कोर्ट के चक्कर लगाने वाला, मुफलिसी में जीने वाला, समाज की नफरत झेलने वाला मंटो आज खूब चर्चा में है उन पर फिल्में बन रही हैं,उनके लेखों को ढूँढा जा रहा है,अभी कुछ सालों पहले ही मंटो के लेखों का एक संग्रह ‘व्हाई आई राइट’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद कर निकाला गया है। इसका अर्थ ये नहीं कि उन्होंने जो भी लिखा है वो सभी अच्छा या सकारात्मक है। बहुत से तथ्य ऐसे होते हैं जो जस के तस समाज के आईने में रख कर भी परिवर्तित नहीं होते। मंटो को लिखे हुए इतना समय हो गया तो कौनसे हालात बदल गए हैं ,कितने प्रतिशत लोग तब पाशविक प्रवृत्ति के थे और कितने अब हैं सभी जानते हैं। मीटू पर इतनी चर्चा और खींच-तान हुई पर आज भी सब वहीं खड़े हैं जहां से चलना शुरू हुए थे। 

 इसका अर्थ ये नहीं कि समाज के इस घिनौने पक्ष को उजागर ना किया जाये पर सर्वोत्तम यही होगा कि उजागर करने से कहीं ज्यादा जरूरी है कि इसे कम करने के प्रयास किए जाएं ,नहीं तो कोई लाभ नहीं क्योंकि मानव कहां -कितना और क्यों गर्त में जा रहा है ये सभी जानते हैं। यदि ये तर्क दिया जाए कि साहित्य इसे कैसे कम करे तो अभी के अभी इस  लेख  को पढ़ने वाले अपने-अपने गरेवान में झांक कर देखें कि कौन इस तरह की गन्दगी समाज में फैला रहे हैं और कौन इससे अपने को निर्लिप्त रख पा रहे हैं। सब जानते हैं कि आज साहित्य भी इस तरह की हवस से बचा नहीं है।

जहां मंटो ने अपनी कहानियों में हर बात को उजागर किया ,वहीं श्रीकांत वर्मा ने अपनी चंद कहानियों और एक उपन्यास या आत्मकथा में एक पुरुष एक महिला के लिए क्या सोचता है और वह एक महिला के शरीर में क्या और क्यों सबसे ज्यादा देखता या देखना चाहता है वाली सोच उजागर की है जिससे पुरुष की बहुत क्रूर और शर्मनाक मानसिकता सामने आती है इससे ज्यादा कुछ नहीं। 60-70 वर्षों में भी समाज में एक स्त्री के लिए एक पुरुष की श्रीकांत वर्मा की कहानियों जैसी या स्वयं उनके जैसी सोच है तब उस समय उनके लिखने का कोई लाभ कैसे माना जा सकता है। उनकी कहानी में जहां भी महिला आई उसी समय एक सबसे जरूरी विषय उस महिला के वक्षस्थल आए ,उनका लेखक की इच्छानुसार वर्णन हुआ। 

ये कौनसे साहित्य की मांग है ? फिर वो महिला चाहे रास्ते में चल रही है ,उठ-बैठ रही है ,टाइपराइटर से टाइप कर रही है या उनकी स्वयं की पत्नी है। जहां मंटो ने अधिकतर कहानियों में स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंध या अनैतिक सम्बन्ध दर्शाए वहीं श्रीकांत वर्मा ने महिलाओं के शरीर का अनावश्यक वर्णन किया। कुछ कहने वाले आजकल ये भी कहते हैं कि पिछले एक दशक में उनकी कीमत सही ढंग से समझी गई और उन्हें मान देना शुरू किया गया है। उसका कारण ये भी है कि समाज अब मूल्यों और मर्यादाओं से पूरी तरह मुक्ति चाहता है ,उसका परिणाम चाहे जो हो उसे इससे भी कोई लेना देना नहीं। 

 श्रीकांत वर्मा द्वारा दिखाए गए स्त्री-पुरुष सम्बन्ध वर्त्तमान में और अधिक लिसलिसे दिखते हैं उनके समय से कहीं अधिक मात्रा में हो रहा है  ये सब और सबने इसे सामान्य मान लिया है स्वीकार कर लिया है, समाज का एक हिस्सा बन गया है वो सब। आज अधिकतर महिला समाज पढ़ा-लिखा और जागरूक है तब भी जो लड़कियां अपने राज्य या शहर से दूर पढ़ने जातीं है उन्हीं में से कुछ अपनी आवश्यकता को पूरा करने ,कमरे का किराया देने आदि के नाम पर स्वेच्छा से अपने शरीर को किसी को भी देने की हिम्मत रखतीं हैं। तब आप इस मानसिकता को कैसे दूर या सुधार सकते हैं या कि बिना कुछ सोचे-समझे उनके इस कृत्य पर एक कहानी या उपन्यास भी आप ही लिखेंगे और समाज को गन्दा बताकर दुत्कारने का काम भी आप ही करेंगे।श्रीकांत से कुछ मिलता-जुलता ही ,वर्तमान के बेस्ट सेलर और युवाओं के पसंदीदा लेखक चेतन भगत ने भी साहित्य जगत को दिया है। स्त्रियों की शारीरिक बनावट का बखान करके।  


निष्कर्ष

कहा जाता है कि लिखने वाला चला गया पर उसको सुनाने का काम अभी तक बंद नहीं हुआ। तो जिसने समाज को जो दिया है उसकी चर्चा  तो अनंतकाल तक होती ही रहेगी और होनी भी चाहिए। उनकी कहानियों में लगता है कि सभ्यता और मानव की पाश्विक प्रवृत्तियों के बीच जो द्वंद है, उसे उघाड़कर रख दिया गया है। सभ्यता का आवरण ओढ़े मानव समाज को चुनौती देती भले प्रतीत होती हों उनकी कहानियां परन्तु उनकी कहानियों ने वो परिवर्तन नहीं किए जो वो चाहते होंगे। जिसके लिए उन्होंने इतनी जोखिम उठाई। मैत्रेय पुष्पा ने 'गुड़िया भीतर गुड़िया ' उपन्यास में जिस वर्ग का बखान किया है वो हमने बहुत निकट से देखा है। ये सभी मानसिकताएं हैं जो स्वयं मानव बदलेगा वो भी जब वो समझेगा या चाहेगा बदलना ,यहां समझाने से कोई नहीं समझता है।


                                                 

Tuesday 15 February 2022

ये कुछ लोग जो व्यर्थ के 'हठी' हैं

 

ये कुछ लोग जो व्यर्थ के 'हठी' हैं

 

👉ये लेख जो आप पढ़ने वाले हैं ऐसे लेख मैं सामन्यतः लिखने की पक्षधर नहीं रहती क्योंकि कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जो अत्यधिक संवेदनशील होते हैं ,जिनका ना तो कोई हल होता है ना की इनसे होने वाले विवादों का अंत। ये मैं अपने स्वस्थ लेखिका होने और बने रहने के लिए लिख रही हूं। जैसे एक उत्तम शिक्षक वही है जो सदैव सीखने के लिए तत्पर रहता है वैसे ही ये बात लेखक के लिए भी आवश्यक है,तो राजनीति,फिल्में,टीवी ,सामाजिक गतिविधियां आदि-आदि के बारे में बिना जाने लेखन विस्तार से न्याय कर पाना नहीं हो सकता। कुछ बातें कभी से मेरे दिमाग और 'संस्कारों वाली फाइल' में वाय डिफॉल्ट सेव हो गईं जो जब मन करे मेरे सामने आ कर विचित्र-विचित्र भाव-भंगिमाएं करके मुझे रिझाने लग रहीं थीं,सो इनको शांत करना आवश्यक था।

          इस लेख के शीर्षक में 'हठ' शब्द का प्रयोग इसलिए जरूरी लगा - हठ शब्द ‘ह’और ‘ठ’ दो अक्षरों से मिलकर बना है। इनमें हकार का अर्थ सूर्य स्वर या पिंगला नाड़ी से है और ‘ठकार’का अर्थ चन्द्र स्वर या इड़ा नाड़ी से लिया गया है। इन सूर्य और चन्द्र स्वरों के मिलन को ही हठयोग कहा गया है।

            कोरोना नाम के संक्रमण के आने से पहले मैं 'भारत ज्ञान विज्ञान समिति' की समता बैठक देहरादून में थी। मुद्दे वही थे महिला सशक्तिकरण,अन्धविश्वास,विज्ञान,धर्म आदि। उस बैठक के कुछ देर बाद ही एक भाई से मेरी बात हो रही थी तो उन्होंने कहा कि 'ब्राह्मणों ने बहुत अत्याचार किए हैं ये मनुवादी लोगों ने हमें बहुत सताया है आदि-आदि' मैंने उनसे पूछा कि क्या आपने मनुस्मृति को पढ़ा है कभी? तो उन्होंने मना किया, फिर बात आई श्रीराम और श्रीकृष्ण पर तब मैंने उनसे कहा कि इनमें से कोई भी 'ब्राह्मण' नहीं हैं तब वो बोले कि 'यदुवंशी और क्षत्रियों ने ही सही पर सताया तो है।' इसपर मैंने कहा कि भाई अब तो सब ठीक है ना ! तो वो हंस कर बोले कि हां ठीक ही है। ये एक ताजा उदहारण है इससे ज्यादा कुछ नहीं।

          उत्तर प्रदेश से आए हुए मुझे यही कोई 10-11 साल हो गए होंगे ,वहां जब हमलोग थे तो महिला संगीत को (गीतों ) में जाना बोला जाता था अलग-अलग तरह के गीतों का बुलावा और आयोजन उतनी ही अलग तरह से होता था।

-शादी में बड़े गीत या मान्य के गीत और बहू दिखाई के गीत -जिसमें बरना-बरनी बधाई आदि।
-बहन-बेटी ,भाई या माता-पिता के घर विवाह का न्यौता देने आती तो 'भात' गाए जाते  
-बच्चों के होने पर जच्चा गाए जाते

      गाए जाने से अर्थ ढोलक और अन्य वाद्य यंत्रों के साथ महिलाऐं -लड़कियां 3-4 घंटे गातीं थीं फिर बाद के आधे -पौने घंटे नृत्य होता जो सभी महिलाऐं नहीं करतीं कुछ-कुछ ही करतीं जिन्हें आता था या जो इक्छुक होतीं। अब 'महिला संगीत' होता है जिसमें 2-1 गाना शगुन का कह कर वहीं सोफे आदि पर बैठकर गा दिया जाता है और शुरू होता 'वैल ट्रेंड एंड फुल प्लांड डांस' जैसा फिल्मी गाना है और उस हीरोइन ने जैसा डांस किया है एकदम उसके जैसा।

     अब महिलाऐं हर छोटी-बड़ी जगह-बेजगह नृत्य करतीं हैं बारातों में सड़क पर ,महिला संगीत में मोमो,चाउमीन,पानीपूरी आदि बनाने वालों के सामने ,कोई-कोई तो जोश में आ कर जो कंधे पर नेट की एक चुन्नी पड़ी होती है,वो भी घुमा के फेंक देती हैं ,अब तो लंहगे पर चुन्नी का चलन भी खतम हो रहा है इसके साक्ष्य आपको इंस्टाग्राम या यूट्यूब के विडिओ पर मिल जाएंगे। एक ओर लड़कियां साड़ी-लंहगा जैसे परिधान की विरोधी होती जा रहीं हैं दूसरी ओर इन्हीं दोनों परिधानों पर लाखों खर्च हो रहे हैं और पहले से ज्यादा ख़रीदे जा रहे हैं। ये कैसे विरोधाभास के पीछे वस्त्रों और धन का अत्यधिक दोहन हो रहा है? शादी करने जाने वाली दुल्हिन ऊँट या घोड़े पर लंहगा और चोली में बैठी मिलेगी चुन्नी वहां भी कोई जरूरी परिधान नहीं है।अपने ही गले के नीचे की 'नेक लाइन। दिखाने में कौन सी आजादी और ख़ुशी महसूस कर रहीं है ये? तो मैं बात कर रही थी नृत्य की ,नृत्य की अपनी कुछ भाव-भंगिमाएं होतीं हैं,नृत्य तो मेनका ने भी किया था। मैंने यूट्यूब आदि पर काफी खोजा पर मुझे मुस्लिम समुदाय की महिलाओं वाले नृत्य के विडिओ ना के बराबर मिले ?

   वर्तमान में ,पृथ्वीलोक पर सर्वव्यापी ब्रह्माश्त्र -'मेरी मर्जी है ,कोई क्या खाएगा,क्या पहनेगा इसका निर्णय कोई कोर्ट या समाज या घर कैसे कर सकता है ? कोई बिकनी पहने या कुछ और। गोविंदा पर फिल्माया और विनय देव का लिखा गाना 'मेरी मर्जी ' याद होगा।

         फिर जहां ये लोग रह रहे हैं उसे मानव समाज क्यों कहा जा रहा है ? ये तो जंगल हुआ और यहां रहने वाले मानव नहीं आदिमानव हुए जिनके पास कपड़े और संतुलित भोजन का विवेक नहीं। मुझे नहीं समझना कि वो कैसे लोग हैं जो वर्तमान में भी ओजोनपरत में छेद और खाद्यान्न कम होने जैसे कारण बताकर जीव-जंतु और पक्षियों को मार कर खाने को सही ठहराते हैं।

         जिनका कोई रोकने या समझाने वाला नहीं उसे पशु समाज में 'अनेर' कहा जाता है। आज आधी आबादी का कुछ प्रतिशत निर्वस्त्र होने को तत्पर है वहीं लड़के अभी भी जींस,पैंट,कुर्ता-पजामी इत्यादि पहन रहे हैं वो किसी समारोह आदि में हाफ पैंट और सेंडो बनियान में नहीं जाते पर लड़कियां-महिलाओं के परिधानों के लिए क्या कहेंगे ? घुटनों से भी ऊपर के निक्कर पहनने की होड़ मची है। बाजार के विभिन्न विज्ञापन बाजार चलाने के लिए आते हैं 'चल गए तो हिट हैं वार्ना कुछ और आजमाएंगे' इसी नवम्बर माह में मैंने एक विज्ञापन देखा जिसमें नई-नवेली दुल्हिन शादी के अगले दिन होने वाले रिशेप्शन में लंहगे में असहज अनुभव कर रही तो वो छोटी स्कर्ट पहन कर आती है लड़का तब भी कुर्ता-पजामी पहने है। ऐसे विज्ञापनों से बहुत से लोग एक झटके में अपनी संस्कृति और संस्कार को गिरवी रख देते हैं जबकि विज्ञापन वाला अपना बाजार-व्यापार चला रहा है। बाजार में एक नाई की दुकान से लेकर बैंड-बाजा तक कौन  लोग बैठे हैं ये बताने की जरूरत नहीं अगर आप 'जावेद हबीब ' को भूले ना हों तो !

           संस्कृति और संस्कार यदि खाने-पहनने ,बिना शादी या शादी के बाद अपने पति या पत्नी को छोड़ कर अन्य के साथ संबंध बनाने या मादक द्रव्य लेने या ना लेने ,अपने संस्कारों और मूल्यों को ना मानने आदि से नहीं फिर किससे है ? धरम-पूजा -पाठ हर बात का विरोध है फिर टीवी पर सैकड़ों ज्योतिषियों वाले चैनल कौनलोग देख और मान रहे हैं ? क्या ये लोग फिर से आदिमानव होने जा रहे हैं ?  


मानवता से आदिमानवता की ओर


               आज के मानव और निएंडरथल मानव के पुरखे एक ही थे। इन्हीं से दो प्रजातियां हुईं। इससे कहा जा सकता है कि कपड़ों का आविष्कार, हमसे पहले निएंडरथल मानवों ने किया होगा।आज से तीस हजार साल पहले जब हिम युग आया तो निएंडरथल उस अत्यधिक ठन्डे वातावरण  का सामना नहीं कर पाए और और वो समाप्त हो गए। उनकी तुलना में हमारे पुरखों ने बदन ढंकने के लिए बेहतर कपड़े बनाना सीख लिया ,आज के इंसान की प्रजाति उस हिम युग में भी बच गई। उस दौर के कई साक्ष्य वैज्ञानिकों ने एकत्रित किए हैं जैसे कि जॉर्जिया कि ज़ुज़ुआना गुफा में रंगे हुए रेशे, इनसे ऐसा लगता है कि उस समय में इंसान ने कपड़े सीने की कला सीख ली थी। कह सकते हैं  कि कपड़े मात्र शरीर ढंकने के लिए ही नहीं, सजावट के लिए भी पहने जाते थे। आज भी बहुत से आदिवासी जो कपड़े नहीं पहनते, वे अपने शरीर को तरह-तरह से रंगते हैं। निएंडरथल मानवों के भी अपने शरीर  को गेरुए रंग से रंगने के साक्ष्य मिले हैं।

      अभिनेत्री आलिया भट्ट का वो विज्ञापन तो याद ही होगा, जिसमें वो कहतीं हैं मैं कोई दान करने की चीज नहीं हूं। इस विज्ञापन की लाइन को असल जिंदगी में आईएएस ज्योति परिहार ने मान लिया उन्होंने अपनी शादी में कन्यादान की रस्म नहीं कराई। इतना भी करने का कष्ट क्यों किया उन्होंने इससे अच्छा विकल्प 'कोर्ट मैरिज' है ना !

लंदन स्थित मेथोलॉजिस्ट,स्टोरी टेलर और कहानीकार डॉ. सीमा आनंद अपनी पुस्तक आर्ट्स ऑफ सिडक्शन' को लेकर लोगों के समक्ष उदयपुर के होटल रेडिसन ब्लू में आईं। वो नाक में बड़ी सी कील, हाथों में धातु की ढेरों चूड़ियां और साड़ी पहनतीं हैं। ये इसलिए बताना जरूरी है क्योंकि -एक ओर लड़कियां शादी से पहले पैरों में बिछुए भी पहनने का शौक रखतीं हैं वहीं शादी होते ही इन सब चीजों को 'बेड़ियां' बतातीं हैं।

      लल्लनटॉप का एक कार्यक्रम 'ऑडनारी ' के नाम से आता है काफी -कुछ होता है उसमें जानने -समझने को साथ ही हर रिश्ते हर बात को इतना अधिक लचीला बनाया जाता है कि किसी भी तथ्य की अपनी कोई पहचान ही ना रहे। जैसे आप "चावल को दाल कहें फिर दाल को पानी और पानी को दही फिर दही को शराब और शराब को ………….." क्या फर्क पड़ता है आप 'संतुष्ट और अच्छा फील कर रहे हैं ' बस बात खतम। अन्तः वस्त्र ना पहन कर पारदर्शी कपड़ों में सार्वजानिक स्थानों पर जाने की जिद को भी सही ठहरना। मैंने नवोदय में शिक्षण के समय देखा है कि 10-11वीं की लड़कियां यदि अंतःवस्त्र ना पहनें तो क्या और कैसा होता है। दीपिका पादुकोण की फिल्म 'गहराइयां' के सहारे से 7-8 साल से बने हुए रिश्ते को तोड़ने के साथ ही किसी निर्दोष का घर बसने से पहले ही उजाड़ देने को सही ठहराना जैसे सैकड़ों मुद्दे हैं उनके कार्यक्रम में।  

गजल गायक भूपिंदर सिंह की आवाज में सुदर्शन फ़ाकिर की लिखी एक गजल सुनी होगी आपलोगों ने  भी -

'शेख कहता है मैं नहीं पीता

हां वो अंगूर खूब खाता है

फर्क इतना है अश्क़ दोनों में

हम तो पीते हैं वो चबाता है

दुनिया कहे बुरी है, ये बोतल शराब की’

आप ना समझे हों तो बता दूं ,अंगूर से भी शराब बनती है तो, आप अगर अंगूर खा रहे हैं तो वो भी शराब के जैसा ही है। ये मतलब है इस गजल के शब्दों का।  

जो भी हो डार्विनवाद या प्रकृतिवाद की बात करें तो अंत में वही शेष रह जाएंगे जो साहसी और संघर्षशील हैं। दुनिया चाहे जब तक रहे पर ये सब यूं ही चलता रहेगा कभी कम कभी ज्यादा।

जय हिन्द

धन्यवाद !

प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में !

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