Friday 10 February 2023

 गठबंधन बड़े ही अनोखे हैं -

इसबार मैं जो विषय लेकर आई हूँ वह नया तो नहीं पर अनोखा अवश्य है। इसमें मैं किसी धार्मिक कर्म-कांड या किसी आश्रम व्यवस्था जैसे किसी तथ्य के पक्ष या विपक्ष में बात नहीं करूंगी में आपको मात्र अवगत करा रही हूँ कि हमारे किन-किन कार्यों के करने न करने के निर्णय हमारे आने वाले जीवन को प्रभावित करते हैं।और हम अपने पूरे जीवन में अपने उस एक निर्णय को कोसते या सराहते रहते हैं। तो आप कैसे निर्णय लेना चाहते हैं ?आप अपने अनुभव भी मुझसे बाँटेंगे तो मुझे हार्दिक खुशी मिलेगी।

बचपन का जोड़कर जितना मुझे याद है,आपसब लोगों के जैसे,मैंने भी कई विवाह समारोह पूरे देखे हैं। फिर चाहे लड़कों का विवाह हो या लड़कियों का। दोनों में विभेद करके कहना इसलिए आवश्यक है क्योंकि विवाह को ऐसे ही पहचाना एवं विवाह के संस्कारों में भी भेद किया जाता है। राज्य और आंचलिक रूप से भी विवाह के संस्कार बदल जाते हैं। मैंने मेरे चार भाइयों के विवाह में भी लगभग 4 प्रकार के कुछ अलग संस्कार देखे।

 कुछ समय पहले तक रात को फेरे होने से पहले वरपक्ष की ओर से वधु और वधु के छोटे भाई-बहनो एवं भतीजों के लिए भी उपहार भी आते थे। जिसको "बरी-पुरी" ,और "धनबबा" बोलते थे। यूं तो मैं अपने घर की इकलौती बेटी हूँ पर मेरे ताऊजी की बेटी थीं तो उनका विवाह समारोह मेरे बचपन की सबसे मजबूत याद है।विवाह में बारात चढ़ने के अतिरिक्त फेरों से पहले दो बार और ढोल-नगाड़े बजते थे। पहली बार एक छोटी सी सजीधजी बंद मटकी जिसे "बरौनियां,बरेनुया " कहा जाता है जिसमें वधु के श्रृंगार की आवश्यक वस्तुएं होतीं हैं। जो वर पक्ष से वर के बहनोई अर्थात बहन के पति या फिर फूफाजी लाते हैं और ये उन्हें इतनी कुशलता से लानी होती है कि वधु पक्ष को इसकी भनक तक न लगे। मंडप में रखकर फूफाजी या बहनोई को अदृश्य होना पड़ता है जो असफल रहे और पकड़ में आ गए तो वधु पक्ष की महिलाऐं या कोई एक "खली निर्भीक महिला" उनकी हल्दी के साथ ऐसी आव-भगत करती हैं कि वो एक-दो साल तक बरौनियां ले जाने के बारे में नहीं सोचते पर कहीं-कहीं ऐसी परिस्थिति होती हैं कि उनके सोचने का  विकल्प ही नहीं होता तो वो बड़ी सतर्कता से इस संस्कार को सम्पन्न करते हैं। ऐसे में बहनोई और फूफा जी का क्या हाल होता होगा आप उसके विभिन्न खाके खींच सकते हैं।

आस-पड़ौस के लोग जो उस समय अपने-अपने घरों में आराम कर रहे होते वो विस्तर में लेटे-लेटे ही अंदाजा लगा लेते कि अब बरौनियां जा रहा है कि अब बरी-पुरी। बरी-पुरी का सामन बड़े ही करीने से सजाया जाता जिसमें कपड़े,सोना,चांदी से लेकर सूखे मेवे,टॉफी,बिस्कुट इत्यादि भी होते। पर मेरी बालबुद्धि को ये बात जरा भी नहीं पची कि इसमें " "बरी"(हम इनको बरी ही बोलते हैं) बड़ियाँ जो सब्जी में डाली जातीं हैं और पुरी (पूड़ी जो पूरियां बोली जातीं हैं ) कहीं भी तो नहीं मैंने बहुत खोजा उस सामान में और बड़ों से पूछा तो जवाब मिला कि इसी को बोलते हैं। अब जब गूगलबाबा से पूछा तो वहां भी यही जवाब मिला। जो भी हो यदि आपलोग जानते हों इसके बारे में तो कमेंट करके मेरा ज्ञानवर्धन अवश्य करें।

एक संस्कार "कुंवर कलेवा" होता जो विवाह सम्पन्न होने के बाद होता उसमें कहीं-कहीं वर-वधु दोनों बिठाए जाते हैं कहीं-कहीं केवल वर को उनके बहन-भाई के साथ बिठाते हैं और उनका टीका इत्यादि करते हैं। बैठने का स्थान " पलका या बैड "होता था तो इसी कारण से इसे "पलकाचारा" भी बोलते हैं। यही वो समय होता है जब वधु की बहनें जूता चुरातीं हैं। पलकाचारा जैसी रीति न होने से जूता चुराना भी टेढ़ी खीर हो जाता है। जिस आश्रम विवाह में हमारी भी सहभागिता थी वहां लड़कियों को हमने मंडप पर ही जूते चुराने की सलाह दी। नहीं तो उनको कोई अवसर न मिलता। इसके बाद ही विदा होती है और बारात दोपहर या शाम तक वर के घर पहुंचती है। तब तक वहां एक संस्कार "गौरारी" या "सुहागिलें" करके हो चुका होता है। इस संस्कार का एक नियम ये है कि ये बारात के पहुंचने से पहले ही हो जाना चाहिए यदि कभी ऐसा हो गया कि वर-वधु पहले पहुंच गई तो या तो गाड़ी से उतारेंगे नहीं या किसी पड़ोसी के घर बिठा देंगे।

ये मैं वो संस्कार बता रही हूँ जो अब लगभग कहीं लुप्त से हो गए हैं। शहर के अतिभव्य विवाहों से लेकर ग्रामीण परिवेश के सरसब्ज विवाहों तक। क्योंकि अब ज्यादातर विवाह किसी होटल या मैरिज होम से ही होते हैं जहां ये सब संभव नहीं होता और सुबह 6-7 बजे तक वो मैरिज होम छोड़ना होता है,और वर-वधु भी ज्यादातर एक ही शहर के होते हैं सो घर पहुंचने में कुछ देर नहीं लगती। 

                                                             

                                                          विवाह समारोह 

आजकल के विवाहों में आवश्यक संस्कार को छोड़कर अन्य सबकुछ होता है। प्रीवेडिंगसूट से लेकर हल्दी,मेहंदी इत्यादि सभी की डोर किसी वैडिंग प्लानर को बड़े गर्व के साथ दी जाती है। जिसमें कई स्थानों पर बर्फ वाला धुआं भी एक कुतूहल का विषय है। सूखी बर्फ को अंग्रेजी में ड्राई आइस कहते हैं। यह एक तरह से कार्बन डाई ऑक्साइड का ठोस रूप होता है। इसकी अनोखी बात ये है कि यह काफी ठंडी होती है। यदि घर वाली नॉर्मल बर्फ की बात करें तो उसका तापमान माइनस 2-3 होता है,लेकिन इसकी सतह का तापमान माइनस 80 डिग्री तक होता है। यह सामान्य बर्फ की तरह गीली नहीं होती है।  वैसे तो इसे छूने से मना किया जाता है,लेकिन अगर आप देखेंगे तो यह पूरी तरह से सूखी होती है। सामान्य बर्फ तो ज्यादा तापमान में आने पर पिघलने लगती है और उसका पानी बन जाता है। जब यह ज्यादा तापमान के संपर्क में आती है तो यह पिघलकर पानी बनने की बजाय धुआं बनकर उड़ने लगती है यानी यह गैस के रुप में पिघलती है। कई विवाह तो आजकल ऐसे भी हो जाते हैं जहाँ कोर्टमैरिज जैसा कुछ करके सूचना फेसबुक पर डाल दी जाती है। जिनलोगों से अभी तक बहुत आत्मीयता जताई जाती थी उनके सामने आने पर भी मिठाई का एक टुकड़ा देना या विवाह की कोई बात तक नहीं की जाती। इसकी विवेचना करने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि हमसभी उसका सामना कर ही रहे हैं।

                                                           

                                                        बर्फ वाला धुआं                                   

हाँ तो मैं ऐसे विवाहों या वैवाहिक संस्कारों की बात कर रही हूँ जिनका सामना आपसब ने न किया हो। मैंने कई आश्रमों या अन्य राज्यों में वैदिक रीती से विवाह देखे हैं।

एक उदहारण मैं शांतिकुंज का देना चाहूंगी जहाँ एक बार में यही कोई 10-11 विवाह सम्पन्न हो रहे थे। वहां आवश्यक वैवाहिक सामग्री शांतिकुंज की ओर से ही थी हाँ आपको कुछ अपना देना-लेना है तो ये आपके ऊपर है। वहाँ कोई बारात-गाजे-बाजे नहीं,कोई धूम-धड़ाका नहीं नितांत सात्विक ढंग से विवाह सम्पन्न हुआ। कोई बारात की आव-भगत नहीं,कोई दुल्हन के नाज-नखरे नहीं।

एक विवाह के सहभागी हाल ही में, हम जम्मू में बने जिसमें ज्यादातर एकदूसरे के रीती-रिवाज हमदोनों पक्ष के लोग जानते थे परन्तु फिर भी एक-दो चीजें ऐसी निकल कर आईं कि हमरे लिए अटपटी या अजीब सी थीं। देवभूमि में बारात बिना फीता काटे विवाह मंडप की ओर प्रवेश नहीं कर सकती तो उनके लिए ये बात महत्वपूर्ण नहीं थी। जब वरमाला की घड़ी आई तो वरपक्ष ने मुहूर्त की बात भी रखी साथ ही जिस कुर्सी या सोफे पर वधु बैठेगी उसपर वर का भांजा या भतीजा बैठा था और उसे कुछ "नेग" दे कर ही उठाया जाएगा। हमलोगों ने जब उस बच्चे को उठाना चाहा तो उसने उठने को मना कर दिया परन्तु किसी ने ये नहीं बताया कि ये कुछ "धन-सामग्री" ले कर उठेगा। रात को जब विवाह -मंडप में पहुंचे तो थोड़े-बहुत कर्म-कांड के बाद फेरों से पहले ही वर समेत वरपक्ष के सभी लोग यह कह कर उठ गए कि फेरों के समय आएँगे सबलो। और लड़की ही बैठेगी यहाँ। काफीलोग जानते होंगे कि लड़की के माँ-बाप फेरे नहीं देखते,और लड़की को भी अकेला कैसे छोड़ा जाए -उसपर भी एक महान बात ये कि ये प्रेमविवाह हो रहा था।

एक और परन्तु अंतिम विवाहगाथा उत्तर प्रदेश से इसी दिसम्बर की बताती हूँ। ये विवाह भी एक आश्रम से होना था वधुपक्ष की सारी व्यवस्था आश्रम की थी। फिर उसमें वधुपक्ष के लोग या संस्कारों का व्यय और कार्य सभी सम्मिलित थे। हमलोगों को कुछ भी नहीं करना पड़ा आश्रम के सारे कार्य वहां के लगभग 15-20 विद्यार्थी बड़ी ही कुशलता से कर रहे थे। आश्रम की ओर से जयमाला और बारात चढ़ाने की कोई व्यवस्था पहले से सुनिश्चित नहीं की गई थी। क्योंकि ये सारी व्यवस्था वरपक्ष की होतीं हैं। फिर भी आश्रम के व्यवस्थापक से अनुरोध करने पर वो हमारी बात पर सहमत हो गए। क्योंकि बारात लगभग 250 किमी दूर से आनी थी सो समय तो लगना ही था। परन्तु कोई माने या न माने पर जो-जैसे होना है सरस्वती जी उसी प्रकार उसे मोहित कर देतीं हैं -

"होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥"

(जो नहीं जानते हैं उनके लिए ,ये चौपाई उस समय शिवजी ने सतीजी के लिए कहीं है जब वो उनके मना करने पर भी श्रीराम की परीक्षा लेने चलीं जातीं हैं।)

तो बारात की बस वृंदावन से 25-30 किमी पर कहीं ऐसी फंसी कि रात १ बजे के लगभग टुकड़ों में छोटी गाड़ियों से बारातियों को ला पाए। जितने गाजे-बाजे ,ढोल-नगाड़ों की व्यवस्था की वो सब मोतीचूर के लड्डू सी बिखर गई। रात साढ़े दस बजे के बाद रात का नास्ता-खाना सब एकसाथ आरम्भ हुआ। हमलोगों के साथ आश्रम के विद्यार्थी और अन्य श्रद्धालु या अन्य अतिथिगण सभी ने बेमन से भोजन किया। नितांत सूनापन लिए दरवाजे आदि के कार्यक्रम मात्र आश्रम के विद्यार्थियों के मंत्रोच्चार के साथ हुए। बारातियों के चमक-धमक वाले कपड़े इत्यादि सब सूटकेस और बैगों की शोभा बढ़ाते रहे। वो तो दूल्हा पता नहीं क्या सोचकर पूरा तैयार हो कर ही अपने घर से चला। नहीं तो हो जाती राधे-राधे।

अब ये सब हुआ क्यों वो इसलिए कि उस रास्ते पर पड़ने वाले टोल टैक्स को बचाया जाए। सो ड्राइवर ने बाकी सभी की सहमति से बस संकरे रास्ते में डाल दी जिसके बाद न तो कोई वाहन बस के पीछे से निकल पाया न ही बस आगे या पीछे जा सकी जिसका एक कारण रात के लगभग साढ़े दस बज चुके थे। 

 यदि ये लोग टोल सड़क के महत्त्व या आवश्यकता को समझते तो पूरी उम्र के लिए ये सोच न रह जाती कि विवाह में कोई धूम-धाम नहीं हुई और सूनी बारात चढ़ी। आप जानते होंगे कि तमिलनाडु में सबसे अधिक टोल सड़कें हैं।केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने 1990 के दशक के अंत में राज्य मंत्री के रूप में महाराष्ट्र में पहली टोल सड़क बनाई थी इसलिए उन्हें 'टोल टैक्स का जनक' भी कहा जाता है। दिल्ली-गुड़गांव एक्सप्रेसवे टोल प्लाजा कुल 32 टोल लेन और 4 रिवर्सिबल टोल लेन के साथ भारत का सबसे बड़ा या शायद एशिया का सबसे बड़ा टोल प्लाजा है। यह इंडियन मेट्रो रोड सिस्टम्स लिमिटेड के साथ Kapsch TrafficCom का एक संयुक्त उद्यम है।

तो जो भी चल-अचल नियम बनाए जाते हैं वो कहीं न कहीं हमसब के हितार्थ ही होते हैं। उनपर चलना-न चलना हमारे ऊपर ही निर्भर होता है और उसके परिणाम भी हमारे होते हैं।

राधे-राधे

 इस ब्लॉग में आपने बरौनिया, बरेनुया, बरी-पुरी,धनबबा,खली महिला,कुंवर कलेवा,पलकाचारा,गौरारी ,सुहागिलें आदि शब्द पढ़े। कैसे लगे जरूर बताइएगा।

  

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