ये मुझे खूब प्रिय है !
पिछले साल के जैसे इस बार भी ममता भाभी (भाभी से वरिष्ठ प्रवक्ता)
विशेषकर मेरे लिए लभेड़े लाईं। इस बार का मूल्य 80 रु किलो,हल्द्वानी में स्थाई रूप
से रहते हुए मुझे 12-13 साल हो गए हैं,पर यहाँ के बाजार में हमें लभेड़े कभी भी नहीं
मिले । मुझे इनकी सब्जी बहुत पसंद है ,बैसे अब मैं वो सभी गुणकारी शाकाहारी पदार्थ
जो उपलब्ध हों खोज-खोज कर खाती हूँ। तो आइए आप भी मेरे साथ इसकी गाथा का आनंद लीजिए।
लभेड़ा,बहुवार
या लसोड़ा,लहटोरा,लेसुआ (Cordia myxa) एक वृक्ष है जो भारतीय उपमहाद्वीप एवं विश्व
के अनेक भागों में पाया जाता है। इसे हिन्दी में 'गोंदी' और 'निसोरा' कहते हैं। संस्कृत
में 'श्लेषमातक' कहा जाता है। पादपरासयनिक जांच में पाया गया कि लसोड़े के फलों में
तेल, ग्लाइकोसाइड्स, फ्लेवोनॉयड्स, sterols, सपोनिन, तारपीन,अलकालॉयड्स, फेनोलिक एसिड,coumarins,
टैनिन,रेसिन्स, गोंद और mucilage मिलते हैं। औषधीय जांच के अनुसार लसोड़े में पीड़ा
नाशक, सूजन रोधी, रोग रोधी, रोगाणु रोधी, एंटीपैरासाइटिक, हार्ट संबंधी, श्वसन संबंधी,
जगरांत्र संबंधी और बचाव संबंधी प्रभाव होते हैं।इसके फल सुपारी के बराबर होते हैं।
कच्चे लभेड़े की सब्जी और अचार भी बनाया जाता है। पके हुए लभेड़े मीठे होते हैं तथा इसके
अन्दर गोंद की तरह चिकना और मीठा रस होता है,जो शरीर को
मोटा बनाता है।
कच्चा लभेड़ा |
लभेड़े के पेड़ बहुत बड़े एवं छायादार होते हैं इसके पत्ते
चिकने होते हैं। दक्षिण, गुजरात और राजपूताना में लोग पान की जगह लभेड़े का उपयोग कर
लेते हैं। लसोड़ा में पान की तरह ही स्वाद होता है। इसके पेड़ की तीन से चार जातियां
होती है पर मुख्य दो हैं जिन्हें लमेड़ा और लसोड़ा कहते हैं। छोटे और बड़े लभेड़े के
नाम से भी यह काफी प्रसिद्ध है। लभेड़े की लकड़ी
बड़ी चिकनी और मजबूत होती है। इमारती काम के लिए इसके
तख्ते बनाये जाते हैं और बन्दूक के कुन्दे में भी इसका प्रयोग होता है। इसके साथ ही
अन्य कई उपयोगी वस्तुएं बनायी जाती हैं।
मैं ये नहीं बता पाऊँगी कि मैं इसकी सब्जी या अचार कबसे खाती आई हूँ। 10-15 साल पहले जब हम उत्तरप्रदेश में रहते थे तब गर्मियों में इसकी सब्जी कई बार खाते थे।इनको खोलने के लिए हल्के हाथों से फोड़ना पड़ता है क्योंकि अधिकांश लभेड़ों के अंदर एक काले रंग का सख्त कीड़ा होता है। खोलते ही ये बाहर निकल आता है।इसकी गुठली हाथ के नाखूनों के सहारे से निकालनी पड़ती है। चाकू से निकालने में चाकू के फिसलने और चोट लगने का डर रहता है। हमारे यहाँ किसी भी मांगलिक कार्य में सर्वप्रथम एक लम्बा सा देवी गीत बिना वाद्ययंत्रों के गाया जाता है। उसमें एक कड़ी आती है -
"हार गुंदत मेरे न्हौ दुखे ,जय-जय रैन जगत दोउ नैन माँ"
इसमें भी उस हल्की दुखन की अनुभूति होती है जो फूलों के हार को बनाने में हुई होगी। बचपन में मैंने खूब फूलों के हार बनाए हैं नवरात्रि और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर। वही जिस डिग्री कॉलेज के बारे में मैंने बताया उसी से तोड़ लेट थे हम ढेरों फूल -चांदनी,गुलाब,गुड़हल,गेंदा और ना जाने क्या-क्या। प्रकृति में इतने रहस्य हैं छुपे हैं कि सबकी समझ से
परे हैं। यदि हम अपनी शर्तों पर जीना चाहें तो जीने के अधिकारी ही नहीं लगते,लगता है
खड़े-खड़े ही जमीन में धंस जाएं।
ये एक सामान्य
सी बात है कि स्थान-स्थान के अनुसार फल और सब्जियों में विभिन्नता होती ही है। लभेड़े
की सब्जी से पहले,लगभग होली के बाद या गर्मियों की शुरुआत में ही लभेड़े का बौर भी बाजार
में आता था। यही कोई महीने-पंद्रह दिन तक मिलता था वो भी जब कभी,क्योंकि ये तोडा नहीं
जाता था आँधी वगैरह से टूट कर गिरता था वही बाजार में आता था और मुझे याद है तब भी
ग्राम की मात्रा में ख़रीदा जाता था ये यही
कोई 10-15 रु का सौ या डेढ़सौ ग्राम मिलता था । आलू के साथ हरा आम जो उस समय तक छोटा-छोटा
आ जाता था बाजार में वो भी डाला जाता था इसकी सब्जी में। लभेड़े के बौर की याद पापा
को हमेशा मम्मी ही दिलातीं थी कि देख लेना आने लगा होगा बाजार में। इसके चलते जब-कभी
मम्मी-पापा में नोंक-झौंक भी हों जाती थी।क्योंकि मैं ही एक ऐसी थी जिसे बौर की सब्जी
चहिए होती थी। बचपन में,मैं काफी मीन-मेख निकालती हूँगी खाने में। सो मेरे लिए मम्मी
कई मुहावरे और लोकोक्ति कहतीं थीं। जैसे -
1-अनहोती लली अंडी का चवैना
2-बादल का बकुला खाना
3-अन्नपूर्णा देवी
4-जबतक देवी मुंह खोलें तब तक साकुंत ही निबट जाए
मुझे लभेड़े के बौर
का कोई चित्र कही नहीं मिला, भविष्य में मिलेगा तो अवश्य साझा करूंगी। लभेड़े का अचार
और सब्जी सभी की पाकविधि आजकल यूट्यूब पर उपलब्ध है।
इसके
और ढेर सारे उपयोग हैं जो मेरे बड़े भाई करते थे। बचपन
में हमारा घर शहर से 4-5 किमी दूर एक डिग्री कॉलेज के सामने था तो शहरी एवं ग्रामीण
दोनों ही रहन-सहन को मैं अच्छे से पहचानती थी। मेरी याद में दूसरे और तीसरे नंबर के
भाई पतंग उड़ाया करते थे तो पतंग के कहीं से फटने पर उसके ऊपर पहले से,उससे अधिक फटी
हुई पतंग का कागज चिपकाने के लिए पके लभेड़े के अंदर का लिसलिसा पदार्थ लगाते और कुछ
ही देर में वो चिपक कर तैयार हो जाती। इसका लिसलिसा पदार्थ कॉपी-किताब चिपकाने के काम
में भी आता था। पके लभेड़े को हमसब चाव से कहते
थे। बैसे ये लोग पतंग को चिपकाने के लिए आटे को महीन कपड़े से छान कर उसे उबाल कर गोंद
बनाते थे जिसे "लेई" कहा जाता था। होने को तो भाई उबले आलू को तो छोड़िए सब्जी
में से निकाल के धो के उससे भी चिपका लेते थे अपनी पतंग। मैं इनके अधिकतर कार्यों की
साक्षी हूँ। बहुत छोटी होने के कारण मुझे ये लोग एक खिलौने की तरह अपने साथ लगाए रहते
थे।
हाँ कभी-कभी
मेरी मम्मी को वहां के वुजुर्ग लोग चेतावनी दिया करते थे "प्रेमा देखना किसी दिन
तुम्हारे ये लड़के तुम्हारी लली( ब्रज क्षेत्र में बेटी को इसी नाम से बुलाते हैं )
को मार डालेंगे" फिर भाइयों की जो खबर ली जाती थी हाहाहाहा,मुझे आज भी याद है।
ये लोग ट्यूबैल से नहाते और मुझे भी उठा कर उसका जो कुंड होता है उसमे डुबकी लगा देते
मैं जोर से चीखती क्योंकि मुझे पानी से डर लगता है। कभी पतंग का मांझा पकड़ा देते और
मेरी उंगली कट जाती( उस मांजे को धारदार बनाने की भी ढेर सारी तकनीकी थीं जो ये लोग
अपनाते थे),कभी पेड़ से आम तोड़ते और वो मेरे सिर पर गिरता तो कभी कमान से तीर चलाते
और मुझसे कहते कि "देख आ रहा है कि नहीं !" ऐसी अनगिनत हरकतें जो इनलोगों
की धुलाई-मँजाई करातीं थीं।
आपलोगों के पास भी हों अगर लभेड़े के कोई अनूठे अनुभव,तो अवश्य
साझा करें। मैं प्रतीक्षा करूंगी
धन्यवाद!
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