Saturday, 24 July 2021

#गुलाबो -सिताबो फिल्म और हमारे बचपन के झरोखों से झांकती यादें

 

गुलाबो-सिताबो कठपुतली 



यहां मैंने "गुलाबो -सिताबो"दो पौराणिक पात्रों के बारे में चर्चा की है। कितना सामंजस्य है आज की फिल्म -गुलाबो -सिताबो और इन पात्रों में साथ ही लगभग प्रत्येक राज्य में ऐसी इमारतें और कहानियां मिल जातीं हैं या नहीं ,इसी पर आधारित किया गया है इस लेख को। पढ़ कर प्रतिक्रिया अवश्य दें ये धारणा न बनाएं कि जो लिख दिया वही सत्य है शब्द भी उतने ही सजीव हैं जितने हम और आप। सुधार का विकल्प कभी समाप्त नहीं होता 

         👩बचपन में हमने भी कठपुतली का खेल खूब देखा है हर साल लगने वाली नुमाइश हो या जब -कभी अपने घर या आस -पास के घर के बाहर भी कठपुतली वाले अपना ताम -झाम लगा लेते और खूब पैसे बटोरते। इस सबके साथ पहली बार हमें ,स्कूल में छटी-सातवीं कक्षा में किसी विशेष उद्देश्य से कठपुतली का तमाशा दिखाया गया। मुझे याद नहीं पर, किसी कुरीति को लेकर ही था। बचपन में हम चीजों को देखते हैं कुछ बड़े हो कर अगर मौका होता है तो सोचते हैं और भी फुर्सत हो तो उन चीजों का विश्लेषण करते हैं। उसी की एक कड़ी थी 12वीं कक्षा की दीदियों की फेयरवेल पार्टी उसमें एक नृत्य नाटिका दिखाई गई थी जिसके मुझे केवल एक-दो वाक्य ही याद हैं -" गईं गुलब्बो गईं गुलब्बो  गईं गुलब्बो……. आईं सितब्बो आईं सितब्बो  आईं सितब्बो …….गईं चम्पाकली " मुझे इस सब का क्या मतलब था या है से कोई लेना -देना नहीं रहा।  

         👉पिछले दिनों आई हिंदी फिल्म -गुलाबो -सिताबो देखी तो वो सारी यादें बचपन के झरोखे से मुस्कुरा पड़ी। यूं तो मेरा बचपन भी इस फिल्म की जैसी पुरानी इमारतों के आस -पास बीता है उत्तर प्रदेश में। जहाँ आज भी लोग ऐसे बड़े -बड़े घरों में नाममात्र का किराया देकर रह रहे हैं जिनकी 3-4 पीढ़ियां बीत चुकी हैं वहां घर ही नहीं मंदिर, बड़े-बड़े किले जो अवागढ़ वाले राजा के नाम से विख्यात हैं , जिस सरकारी स्कूल से हम पढ़े वहाँ धूप घड़ी भी थी ,झाड़ू की एक सींक,आया से मांगते और पत्थर की घड़ी के बीचों -बीच बने छेद पर खड़ी करते -जहाँ सींक की छाया पड़ती समझ लीजिये वही बजा होता , वहां पांचवीं कक्षा वाले कमरे में दो बड़े तख़्त पड़े थे उन्हीं पर जूते खोल कर ऊपर बैठकर पढ़ते थे हम। आपको शायद हैरानी हो कि उस कमरे की छत पर ढेरों चमगादड़ उलटे लटके रहते थे और साथ वाली लड़कियां एक दूसरे को ये ज्ञान देने से बाज नहीं आतीं थीं कि "ये चमगादड़ सर पर गिर जाएं तो सारा खून पी कर ही हटते हैं " तो हमसब का ध्यान पढ़ाई में कम और चमगादड़ पर ज्यादा रहता था। इन इमारतों की कहानियां तब तक जिन्दा रहेंगी जबतक कि इनका पुनर्निर्माण नहीं हो जाएगा। एटा का कैलाश मंदिर राजा का ताल , विक्टोरिया पार्क और ना जाने क्या -क्या।       

            फिल्म के शुरुआती दृश्यों में से एक दिलचस्प शीर्षक सन्देश है, जहां सड़क के किनारे कठपुतली को ,दो भड़कीले कपड़े पहने हाथ नचा रहे हैं 2002 में आई एक फिल्म " दिल है तुम्हारा " का गाना -दिल लगा लिया मैंने तुमसे प्यार करके….  याद होगा उसमें कठपुतियों का रूप दिखाया गया है। अगर पुरानी फिल्मों की कहें तो एक लम्बी लिस्ट मिलेगी आपको जब कठपुतली को बड़े परदे पर नचाया गया हो। बोल री कठपुतली तेरी कौन संग लागी डोरी नाचे किसके लिए…….”

            गुलाबो-सिताबो की असली कहानी आजादी के बाद के भारत की है। कहानी 1950 के दशक की शुरुआत की है, जब कठपुतली नव-स्वतंत्र देश में मनोरंजन के प्रमुख स्रोतों में से एक था। कठपुतली की कला को अभी तक देश में संग्रहीत नहीं किया गया है। 

            उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के नाहरपुर गाँव जो महानायक बच्चन जी भी है ,का एक खानाबदोश परिवार उत्तर भारत के हाथ से बने कठपुतली दृश्य में जाना जाता था। इस परिवार को कठपुतली अवधारणा के योगदान का श्रेय दिया जाता है - जहां सामाजिक संदेशों को कठपुतली प्रदर्शन में बड़े करीने से बुना जाता था।उस समय इलाहाबाद के कृषि संस्थान (वर्तमान प्रयागराज) में काम करने वाले परिवार के एक सदस्य राम निरंजन लाल श्रीवास्तव ने लीनियर वोकेशन में हाथ आजमाने का फैसला किया।

             उन्होंने दो कठपुतली पात्रों - गुलाबो और सिताबो का निर्माण किया, जो एक-दूसरे के शत्रु बन गए। वे एक ही अदृश्य आदमी, सिताबो के पति और गुलाबो के प्रेमी पर लड़ते हैं कहीं-कहीं इसे ननद -भाभी के नाम से भी जाना गया और उनके तर्क ज्यादातर घर के मामलों से निपटते हैं, जबकि दर्शकों को खुश करने के लिए बीच-बीच में रिबल्ड चुटकुले सुनाए जाते हैं।हालांकि, रचनाकार, राम निरंजन ने बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या या दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों पर सामयिक जीवों को शामिल किया। जल्द ही, राम निरंजन ने अपने परिवार के साथ देश की यात्रा शुरू की, हर जगह अपने गुलाबो-सिताबो शो को रखा। सर्दियों की सुबह की चाय के समय में, या  उमस भरी गर्मी की दोपहर में, भीड़ एक दूसरे के गले में बाहें फंसाए  गुलाबो और सिताबो की झलक पाने के लिए तैयार रहती। मुख्य कथानक एक ही रहा, लेकिन दर्शकों द्वारा पूरे मनोरंजन के लिए अलग-अलग उप-भूखंडों को अक्सर निर्माता द्वारा जोड़ा गया। संयमित चरित्र और तीखे संवाद हास्य के साथ अक्सर गुलाबो-सिताबो को खूब ख्याति मिली। 

         1956 में, जब लखनऊ में वयस्क और गैर-औपचारिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए साक्षरता हाउस की स्थापना की गई, तो यह जल्द ही कठपुतली सहित विभिन्न रूपों और मंचों के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने के लिए एक आकर्षण का केंद्र बन गया। संयुक्त राज्य अमेरिका के एक प्रसिद्ध कठपुतली युगल बिल और कोरा बेयर्ड ने साक्षर भारत कार्यक्रम के शैक्षिक अनौपचारिक विभाग को ऐसे अनौपचारिक साधनों के माध्यम से साक्षर भारत कार्यक्रम के उद्देश्यों को बनाए रखने में मदद की।राम निरंजन विभाग में शुरुआती टीम का हिस्सा थे, जहाँ उनकी कठपुतली का इस्तेमाल सामाजिक जागरूकता बढ़ाने के लिए किया गया था।

           गुलाबो-सिताबो का प्रदर्शन जल्द ही उत्तर प्रदेश में एक चलन बन गया और छोटे स्तर पर कठपुतलियों की कहानी को अपना कर रोजी -रोटी का जरिया बनाया, कठपुतलियों को आम तौर पर आम की लकड़ी से बनाया जाता है और चमकदार, जीवंत परिधानों में आभूषणों से सजाया जाता है। दोनों के बीच, सिताबो की पोशाक और प्रदर्शन ,गुलाबो की तुलना में कम आकर्षक हैं। कठपुतली शो आम तौर पर ड्रम (ढोलक) और झांझ (मंजीरा)  घुंघरू और एक सीटी के साथ होता है।

तो साहब ये तो बात हुई गुलाबो -सिताबो हैं क्या ?

        इसको आप कुत्ते -बिल्ली का बैर की कहानी या और भी बहुत से उदाहरणों से समझ सकते हैं,हालाँकि अब कुत्ते-बिल्ली के बैर वाला मुहावरा खतम हो रहा है फेसबुक ,इंस्टा आदि पर कुत्ते-बिल्ली की दोस्ती वाले बेहिसाब विडिओ पड़े हुए हैं। आज लोगों के अपने बच्चे भले ना  हों पर वो कुत्ते-बिल्ली जरूर पालेंगे और उनसे मम्मी -पापा कहलवाएंगे । पर मेरा ये दावा है कि आज भी अगर आप कठपुतली का खेल देखेंगे तो आपको जरूर हंसी आ जाएगी जिसकी थोड़ी सी भी उम्मीद आप इस " फिल्म " से नहीं कर सकते है। यू ट्यूब पर आज भी आपको कठपुतली खेल के कई विडिओ मिल जायेंगे जिनमें राजस्थान के ज्यादा होंगे।  

        👌👍पर फिल्म ने एक -दो काम जरूर किये हैं एक तो लोग " गुलाबो -सिताबो " चरित्र को फिर से जानेगे और दूसरा कैसे और कितने लोग पुरानी इमारतों पर कब्ज़ा करके धनवान बने बैठे हैं वो भी या आने वाले समय में कब्जे के इस खेल से कितनी किसकी गति -दुर्गति हो सकती है कोई नहीं जनता। 


             
कैलाश मंदिर 



सबसे बदतर बात या बुरा संदेश इस फिल्म में मेरे हिसाब से तो वही लगा कि कैसे " शारीरिक संबंधो " को और ज्यादा बदबूदार और लिसलिसा बनाया जा रहा है। लोग कह रहे हैं कि कोरोना ने लोगों के घर तोड़े हैं तो जनाव घर नाम की चीज अगर इतनी कच्ची मिट्टी से बानी है कि एक वाइरस उसे तोड़ देता है तो अब तक वो , किसी भ्रम में ही जुड़ा था जो सामने आ गया अच्छा ही है। परेशानियों में ही तो हमारे -आपके धैर्य और हिम्मत की परख होती है।

बाकी सबकी अपनी-अपनी जिंदगी है चाहे जिस चक्की में पीसो।देखिये कोरोना और क्या -क्या करेगा

         आपने इस लेख में कठपुतली कैसे और क्यों बनाई गई ,किसने और कितने समय में बनाई। पुरानी इमारतें या बिना मूल्य चुकाए उपयोग की गई वस्तुओं के परिणाम कैसे हो सकते हैं। शिक्षा ग्रहण करने एवं देने के लिए मानव समाज सदैव संघर्षरत रहता है ये भी आपने देखा।  


धन्यवाद ! जय हिन्द 

2 comments:

  1. अति वाहियात मूवी थी। में जो एक बार कोई मूवी देखना चालू करता हु तो फिर वो चाहे कैसी भी हो खतम जरूर करता हु। पर ये मूवी इतनी वाहियात थी की खतम ही ना कर सका।
    लास्ट कठपुतली का शो २०१२ में राजस्थान में देखा था।
    और हमारे स्कूल की छत पे चमगादड़ नही थे पर छत टूटी हुई थी थोड़ी। तो दर लगा रहता की कही पंखा या छत ही ना गिर पड़े।

    ReplyDelete
    Replies
    1. अब तो ऐसे बहुत सारे विकल्प हैं कि आप मूवी या कोई सीरीज वगैरह जितनी देखना चाहे देख सकते हैं ,मेरे हिसाब से आरम्भ देखा तो मध्य और अंत तो जरूरी है। पर सभी के अपने-अपने "यदि" और "लेकिन " होते हैं।
      जो भी हो मुझे अच्छा लगा कि आपने अपने भी विचार व्यक्त किए। आगे भी आशा करती हूँ कि आप आपने विचार प्रेषित करते रहेंगे। धन्यवाद !

      Delete