ये कुछ लोग जो व्यर्थ के 'हठी' हैं
👉ये लेख जो आप पढ़ने वाले हैं ऐसे लेख मैं सामन्यतः लिखने की
पक्षधर नहीं रहती क्योंकि कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जो अत्यधिक संवेदनशील होते हैं ,जिनका
ना तो कोई हल होता है ना की इनसे होने वाले विवादों का अंत। ये मैं अपने स्वस्थ लेखिका
होने और बने रहने के लिए लिख रही हूं। जैसे एक उत्तम शिक्षक वही है जो सदैव सीखने के
लिए तत्पर रहता है वैसे ही ये बात लेखक के लिए भी आवश्यक है,तो राजनीति,फिल्में,टीवी
,सामाजिक गतिविधियां आदि-आदि के बारे में बिना जाने लेखन विस्तार से न्याय कर पाना
नहीं हो सकता। कुछ बातें कभी से मेरे दिमाग और 'संस्कारों वाली फाइल' में वाय डिफॉल्ट
सेव हो गईं जो जब मन करे मेरे सामने आ कर विचित्र-विचित्र भाव-भंगिमाएं करके मुझे रिझाने
लग रहीं थीं,सो इनको शांत करना आवश्यक था।
इस लेख के शीर्षक में 'हठ' शब्द का प्रयोग इसलिए जरूरी लगा
- हठ शब्द ‘ह’और ‘ठ’ दो अक्षरों से मिलकर बना है। इनमें हकार का अर्थ सूर्य स्वर या
पिंगला नाड़ी से है और ‘ठकार’का अर्थ चन्द्र स्वर या इड़ा नाड़ी से लिया गया है। इन
सूर्य और चन्द्र स्वरों के मिलन को ही हठयोग कहा गया है।
कोरोना
नाम के संक्रमण के आने से पहले मैं 'भारत ज्ञान विज्ञान समिति' की समता बैठक देहरादून
में थी। मुद्दे वही थे महिला सशक्तिकरण,अन्धविश्वास,विज्ञान,धर्म आदि। उस बैठक के कुछ
देर बाद ही एक भाई से मेरी बात हो रही थी तो उन्होंने कहा कि 'ब्राह्मणों ने बहुत अत्याचार
किए हैं ये मनुवादी लोगों ने हमें बहुत सताया है आदि-आदि' मैंने उनसे पूछा कि क्या
आपने मनुस्मृति को पढ़ा है कभी? तो उन्होंने मना किया, फिर बात आई श्रीराम और श्रीकृष्ण
पर तब मैंने उनसे कहा कि इनमें से कोई भी 'ब्राह्मण' नहीं हैं तब वो बोले कि 'यदुवंशी
और क्षत्रियों ने ही सही पर सताया तो है।' इसपर मैंने कहा कि भाई अब तो सब ठीक है ना
! तो वो हंस कर बोले कि हां ठीक ही है। ये एक ताजा उदहारण है इससे ज्यादा कुछ नहीं।
उत्तर प्रदेश से आए हुए मुझे यही कोई 10-11 साल हो गए होंगे
,वहां जब हमलोग थे तो महिला संगीत को (गीतों ) में जाना बोला जाता था अलग-अलग तरह के
गीतों का बुलावा और आयोजन उतनी ही अलग तरह से होता था।
-शादी में बड़े गीत या मान्य के गीत और बहू दिखाई के गीत
-जिसमें बरना-बरनी बधाई आदि।
-बहन-बेटी ,भाई या माता-पिता के घर विवाह का न्यौता देने
आती तो 'भात' गाए जाते
-बच्चों के होने पर जच्चा गाए जाते
गाए
जाने से अर्थ ढोलक और अन्य वाद्य यंत्रों के साथ महिलाऐं -लड़कियां 3-4 घंटे गातीं थीं
फिर बाद के आधे -पौने घंटे नृत्य होता जो सभी महिलाऐं नहीं करतीं कुछ-कुछ ही करतीं
जिन्हें आता था या जो इक्छुक होतीं। अब 'महिला संगीत' होता है जिसमें 2-1 गाना शगुन
का कह कर वहीं सोफे आदि पर बैठकर गा दिया जाता है और शुरू होता 'वैल ट्रेंड एंड फुल
प्लांड डांस' जैसा फिल्मी गाना है और उस हीरोइन ने जैसा डांस किया है एकदम उसके जैसा।
अब महिलाऐं हर छोटी-बड़ी जगह-बेजगह नृत्य करतीं हैं बारातों में सड़क पर ,महिला संगीत में मोमो,चाउमीन,पानीपूरी आदि बनाने वालों के सामने ,कोई-कोई तो जोश में आ कर जो कंधे पर नेट की एक चुन्नी पड़ी होती है,वो भी घुमा के फेंक देती हैं ,अब तो लंहगे पर चुन्नी का चलन भी खतम हो रहा है इसके साक्ष्य आपको इंस्टाग्राम या यूट्यूब के विडिओ पर मिल जाएंगे। एक ओर लड़कियां साड़ी-लंहगा जैसे परिधान की विरोधी होती जा रहीं हैं दूसरी ओर इन्हीं दोनों परिधानों पर लाखों खर्च हो रहे हैं और पहले से ज्यादा ख़रीदे जा रहे हैं। ये कैसे विरोधाभास के पीछे वस्त्रों और धन का अत्यधिक दोहन हो रहा है? शादी करने जाने वाली दुल्हिन ऊँट या घोड़े पर लंहगा और चोली में बैठी मिलेगी चुन्नी वहां भी कोई जरूरी परिधान नहीं है।अपने ही गले के नीचे की 'नेक लाइन। दिखाने में कौन सी आजादी और ख़ुशी महसूस कर रहीं है ये? तो मैं बात कर रही थी नृत्य की ,नृत्य की अपनी कुछ भाव-भंगिमाएं होतीं हैं,नृत्य तो मेनका ने भी किया था। मैंने यूट्यूब आदि पर काफी खोजा पर मुझे मुस्लिम समुदाय की महिलाओं वाले नृत्य के विडिओ ना के बराबर मिले ?
फिर जहां ये लोग रह रहे हैं उसे मानव समाज क्यों
कहा जा रहा है ? ये तो जंगल हुआ और यहां रहने वाले मानव नहीं आदिमानव हुए जिनके पास
कपड़े और संतुलित भोजन का विवेक नहीं। मुझे नहीं समझना कि वो कैसे लोग हैं जो वर्तमान
में भी ओजोनपरत में छेद और खाद्यान्न कम होने जैसे कारण बताकर जीव-जंतु और पक्षियों
को मार कर खाने को सही ठहराते हैं।
जिनका
कोई रोकने या समझाने वाला नहीं उसे पशु समाज में 'अनेर' कहा जाता है। आज आधी आबादी
का कुछ प्रतिशत निर्वस्त्र होने को तत्पर है वहीं लड़के अभी भी जींस,पैंट,कुर्ता-पजामी
इत्यादि पहन रहे हैं वो किसी समारोह आदि में हाफ पैंट और सेंडो बनियान में नहीं जाते
पर लड़कियां-महिलाओं के परिधानों के लिए क्या कहेंगे ? घुटनों से भी ऊपर के निक्कर पहनने
की होड़ मची है। बाजार के विभिन्न विज्ञापन बाजार चलाने के लिए
आते हैं 'चल गए तो हिट हैं वार्ना कुछ और आजमाएंगे' इसी नवम्बर माह में
मैंने एक विज्ञापन देखा जिसमें नई-नवेली दुल्हिन शादी के अगले दिन होने वाले रिशेप्शन
में लंहगे में असहज अनुभव कर रही तो वो छोटी स्कर्ट पहन कर आती है लड़का तब भी कुर्ता-पजामी
पहने है। ऐसे विज्ञापनों से बहुत से लोग एक झटके में अपनी संस्कृति और संस्कार को गिरवी
रख देते हैं जबकि विज्ञापन वाला अपना बाजार-व्यापार चला रहा है। बाजार में एक नाई की
दुकान से लेकर बैंड-बाजा तक कौन लोग बैठे हैं
ये बताने की जरूरत नहीं अगर आप 'जावेद हबीब ' को भूले ना हों तो !
संस्कृति और संस्कार यदि खाने-पहनने ,बिना शादी या शादी के बाद अपने पति या पत्नी को छोड़ कर अन्य के साथ संबंध बनाने या मादक द्रव्य लेने या ना लेने ,अपने संस्कारों और मूल्यों को ना मानने आदि से नहीं फिर किससे है ? धरम-पूजा -पाठ हर बात का विरोध है फिर टीवी पर सैकड़ों ज्योतिषियों वाले चैनल कौनलोग देख और मान रहे हैं ? क्या ये लोग फिर से आदिमानव होने जा रहे हैं ?
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आज के मानव और निएंडरथल मानव के पुरखे एक ही थे। इन्हीं से दो प्रजातियां हुईं। इससे कहा जा सकता है कि कपड़ों का आविष्कार, हमसे पहले निएंडरथल मानवों ने किया होगा।आज से तीस हजार साल पहले जब हिम युग आया तो निएंडरथल उस अत्यधिक ठन्डे वातावरण
का सामना नहीं कर पाए और और वो समाप्त हो गए। उनकी तुलना में हमारे पुरखों ने बदन ढंकने के लिए बेहतर कपड़े बनाना सीख लिया ,आज के इंसान की प्रजाति उस हिम युग में भी बच गई। उस दौर के कई साक्ष्य वैज्ञानिकों ने एकत्रित किए हैं जैसे कि जॉर्जिया कि ज़ुज़ुआना गुफा में रंगे हुए रेशे, इनसे ऐसा लगता है कि उस समय में इंसान ने कपड़े सीने की कला सीख ली थी। कह सकते हैं
कि कपड़े मात्र शरीर ढंकने के लिए ही नहीं, सजावट के लिए भी पहने जाते थे। आज भी बहुत से आदिवासी जो कपड़े नहीं पहनते, वे अपने शरीर को तरह-तरह से रंगते हैं। निएंडरथल मानवों के भी अपने शरीर
को गेरुए रंग से रंगने के साक्ष्य मिले हैं।
अभिनेत्री आलिया भट्ट का वो विज्ञापन तो याद ही होगा, जिसमें वो कहतीं हैं मैं कोई दान करने की चीज नहीं हूं। इस विज्ञापन की लाइन को असल जिंदगी में आईएएस ज्योति परिहार ने मान लिया उन्होंने अपनी शादी में कन्यादान की रस्म नहीं कराई। इतना भी करने का कष्ट क्यों किया उन्होंने इससे अच्छा विकल्प 'कोर्ट मैरिज' है ना !
लंदन स्थित मेथोलॉजिस्ट,स्टोरी टेलर और कहानीकार डॉ. सीमा आनंद अपनी पुस्तक “द आर्ट्स ऑफ सिडक्शन’' को लेकर लोगों के समक्ष उदयपुर के होटल रेडिसन ब्लू में आईं। वो नाक में बड़ी सी कील, हाथों में धातु की ढेरों चूड़ियां और साड़ी पहनतीं हैं। ये इसलिए बताना जरूरी है क्योंकि -एक ओर लड़कियां शादी से पहले पैरों में बिछुए भी पहनने का शौक रखतीं हैं वहीं शादी होते ही इन सब चीजों को 'बेड़ियां' बतातीं हैं।
लल्लनटॉप का एक कार्यक्रम 'ऑडनारी ' के नाम से आता है काफी -कुछ होता है उसमें जानने -समझने को साथ ही हर रिश्ते हर बात को इतना अधिक लचीला बनाया जाता है कि किसी भी तथ्य की अपनी कोई पहचान ही ना रहे। जैसे आप "चावल को दाल कहें फिर दाल को पानी और पानी को दही फिर दही को शराब और शराब को ………….." क्या फर्क पड़ता है आप 'संतुष्ट और अच्छा फील कर रहे हैं ' बस बात खतम। अन्तः
वस्त्र ना पहन कर पारदर्शी कपड़ों में सार्वजानिक स्थानों पर जाने की जिद को
भी सही ठहरना। मैंने नवोदय में शिक्षण के समय देखा है कि 10-11वीं की लड़कियां यदि अंतःवस्त्र
ना पहनें तो क्या और कैसा होता है। दीपिका पादुकोण की फिल्म 'गहराइयां' के सहारे से
7-8 साल से बने हुए रिश्ते को तोड़ने के साथ ही किसी निर्दोष का घर बसने से पहले ही
उजाड़ देने को सही ठहराना जैसे सैकड़ों मुद्दे हैं उनके कार्यक्रम में।
गजल गायक भूपिंदर सिंह की आवाज में सुदर्शन फ़ाकिर की लिखी एक गजल सुनी होगी आपलोगों ने भी -
'शेख कहता है मैं नहीं पीता
हां वो अंगूर खूब खाता है
फर्क इतना है अश्क़ दोनों में
हम तो पीते हैं वो चबाता है
दुनिया कहे बुरी है, ये बोतल शराब की’
आप ना समझे हों तो बता दूं ,अंगूर से भी शराब बनती है तो, आप अगर अंगूर खा रहे हैं तो वो भी शराब के जैसा ही है। ये मतलब है इस गजल के शब्दों का।
जो भी हो डार्विनवाद या प्रकृतिवाद की बात करें तो अंत में वही शेष रह जाएंगे जो साहसी और संघर्षशील हैं। दुनिया चाहे जब तक रहे पर ये सब यूं ही चलता रहेगा कभी कम कभी ज्यादा।
जय हिन्द
धन्यवाद !
प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में !