Sunday 23 January 2022

सैनेटाइजर और ग्रीक अक्षर की सांठ गांठ

हमारा गांव आगरा के पास मुख्य मार्ग से कोई 10-15 किमी होगा। तब हमलोग घर तक  का रास्ता बैलगाड़ी आदि से तय करते थे ,कहीं-कहीं तो बैलगाड़ी के पलटने के डर से कुछ दूर तक उतर कर पैदल भी चलना पड़ता था। तो कितने भी बचो पैर धूल-मिट्टी में हो ही जाते थे। पर गांव पहुंच कर लगता मानो किसी देश की राजकुमारी हूं मैं। ज्यादा याद नहीं पर एक बात नहीं भूलती कि वहां पहुंच कर सीधे ही हम कमरों में नहीं जाते थे। कमरों के बाहर बरामदा होता था ,वहां चारपाई पड़ीं होतीं थीं उनपर बैठते थे फिर कुछ ही देर में एक महिला आतीं थीं जिनको हमारी भाषा में 'नाइन' बोलते हैं वो एक थाली या ऐसे ही किसी वर्तन में पानी लातीं और उसमें मम्मी और मेरे पैर रखतीं और उनको कुछ देर धोती फिर निकालतीं ,बदले में मम्मी उनको रूपए या ऐसा ही कुछ सामान देतीं ,कभी वो नहीं पातीं तो मम्मी से रिश्ते में छोटी कोई भी महिला ये काम करतीं उसके बाद,खुद हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदल कर आगे की दिनचर्या शुरू होती। ये सब अकेले हमारे गांव में ही नहीं होता था और भी बहुत सी जगह होता रहा है ,बस अंदाज अलग-अलग हैं। जिसका एक उदहारण गुरूद्वारे हैं ,जहां मौसम के अनुसार ठंडा-गरम वहता पानी गुरूद्वारे में प्रवेश से पहले ही होता है जिसमें पैर रखकर ही अंदर जाना होता है। 

         इससे पैरों की सफाई के साथ सफर की थकान भी कम होती है और उस सब से जरूरी काम ये होता है कि सारी अला-बला दूर भाग जातीं हैं। क्या ? अला-बला नहीं जानते ? अरे ! भाई वही आपकी 'नकारात्मक ऊर्जा' जो दिखाई नहीं देती पर होती है अब तो सब मान ही गए हैं क्योंकि धीरे-धीरे ये मुआ कोरोना तीन साल का हुआ जा रहा है।

         अब ज्यादातर लोगों ने सफर के बाद की साफ-सफाई या सामन्य रूप में बाहर से आने के बाद घर में घुसने से पहले कोई नियम कायदा -कानून मानने बंद कर दिए हैं। मंहगे-मंहगे कपड़े कोई रोज थोड़े धोए जाते हैं 5-10 हजार के जूते घर के बाहर थोड़े उतारे जाएंगे। महानगरों में तो बाहर जैसी कोई जगह मिलती भी नहीं है इसी सब का नतीजा अब महामारी बनकर सामने आया और 'वो थाली का पानी ' सैनेटाइजर के रूप में सामने आया। कमाल का तालमेल है सैनेटाइजर और ग्रीक अक्षरों में। क्या ?दिमाग पर जोर डालना पड़ रहा है चलिए आसानी कर देती हूं - कोरोना काल के डेल्टा और ओमीक्रॉन वैरिएंट ग्रीक अक्षर ही हैं।

       तो जब बस साफ-सफाई की हो तो साबुन से हाथ धोना सबसे अच्‍छा माना जाता है लेकिन अगर साबुन और पानी की व्‍यवस्‍था नहीं है तो हैंड सैनेटाइजर सबसे बढ़िया विकल्‍प है। कोरोना काल में तो हैंड सैनिटाइजर एक अस्‍त्र की तरह काम आ रहा है और इसे हर वक्‍त अपने साथ रखना लोगों की जरूरत बन गई है।

      हमने सबसे पहले जी टीवी के धारावाहिक 'हिटलर दीदी' में देखा वो एक-इकलौता,मेरा पसंदीदा सीरियल है अभी भी 2012 -13  में आने वाले इस सीरियल को डाउनलोड करने के लिए हम रात को दो-ढाई बजे उठ के लगा देते और बाद में आराम से देखते। उसके बाद तो सामान्य सा लगाने लगा ये सैनेटाइजर शब्द। पर इतना जरूरी तो ये कोरोना के आक्रमण से ही हुआ कि हर किसी के जरूरी सामान में ये भी पाया ही जाएगा।

ल्यूप हर्नान्डिज


            एक रिपोर्ट के अनुसार सबसे पहले इसे बनाने का आइडिया साल 1966 में अमेरिकी राज्य कैलिफोर्निया के बेकर्सफील्ड शहर में रहने वाली एक लड़की को आया , जिसका नाम ल्यूप हर्नान्डिज था ,ल्यूप नर्सिंग की एक छात्रा थीं। एक दिन अचानक उनके दिमाग में आया कि किसी मरीज के पास जाने से पहले या उसके पास से आने के बाद हाथ साफ करने के लिए साबुन और पानी हो तो क्या होगा। इसके बाद उन्होंने सोचा कि क्यों कुछ ऐसा बनाया जाए, जो साबुन से कुछ अलग हो और बिना पानी के भी काम चल जाए, साथ ही उसके इस्तेमाल से कीटाणु भी मर जाएं। ऐसे में उन्होंने एक अल्कोहल युक्त जेल बनाया और उसे अपने हाथों पर रगड़ कर यह चेक किया कि उससे क्या फायदा होता है।ल्यूप का अल्कोहल युक्त जेल काम कर गया। उससे कीटाणुओं का भी सफाया हो गया और पानी की तरह उसे सुखाने की भी जरूरत नहीं पड़ी।

सैनेटाइजर


          इस तरह ल्यूप का यह 'आविष्कार' धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गया और बड़ी संख्या में इसका इस्तेमाल होने लगा। ल्यूप हर्नान्डिज का जन्म 16 सितम्बर 1952 में हुआ इनकी वर्तमान आयु 69  वर्ष है। आज ल्यूप के बारे बहुत कम ही लोग जानते हैं लेकिन उनका ये 'आविष्कार' पूरी दुनिया को फायदा जरूर पहुंचा रहा है। लोगों ने इन्हे खूब धन्यवाद दिया है इनके इस कार्य के लिए। ये किसी अजूबा से कम नहीं कि जब इन्होंने इसका अविष्कार किया है तब इनकी आयु मात्रा 14  साल रही होगी जो ऐसे कार्यों  के लिए बहुत कम है। लेकिन इसी को कहेंगे 'बेटी के पांव।'

अल्कोहल-आधारित हैंड सैनेटाइजर का उपयोग सामान्यतः यूरोप में यही कोई 1980 के दशक से किया गया है। अल्कोहल-आधारित संस्करण विश्व स्वास्थ्य संगठन की आवश्यक दवाओं की सूची में है, जो स्वास्थ्य प्रणाली में आवश्यक सबसे सुरक्षित और प्रभावी दवाएं हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा सुझाए गए सूत्र
पहला सूत्र-
घटक  आवश्यक आयतन (10 लीटर बनाने के लिए) सक्रिय घटक % (v/v)
एथनॉल 96%  8333 mL        80%
ग्लीसरॉल 98%           145 mL          1.45%
हाइड्रोजन परॉक्साइड 3%    417 mL          0.125%
आसुत  जल    added to 10000 mL            18.425%

दूसरा सूत्र -

घटक  आवश्यक आयतन (10 लीटर बनाने के लिए)         सक्रिय घटक % (v/v)

आइसोप्रोपिल अल्कोहल 99.8%     7515 mL        75.15%

ग्लीसरॉल 98%           145 mL          1.45%

हाइड्रोजन परॉक्साइड 3%    417 mL          0.125%

आसुत  जल    added to 10000 mL            23.425%

      महामारी कोई पहली बार नहीं आई है ,100 साल पहले भी ताऊन या प्लेग (Plague) संसार की सबसे पुरानी महामारियों में है। इसे ताऊन, ब्लैक डेथ, पेस्ट आदि नाम भी दिए गए हैं। मुख्य रूप से यह कृतंक (rodent) प्राणियों (प्राय: चूहे) का रोग है, जो पास्चुरेला पेस्टिस नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। प्राचीन काल में किसी भी महामारी को प्लेग कहते थे। यह रोग कितना पुराना है इसका अंदाज इससे किया जा सकता है कि एफीरस के रूफुस ने, जो ट्रॉजन युग का चिकित्सक था, "प्लेग के ब्यूबों" का जिक्र किया है और लिखा है कि है। ईसा पूर्व युग में 41 महामारियों के अभिलेख मिलते हैं। ईसा के समय से सन् 1500 तक 109 बड़ी महामारियाँ हुईं, जिनमें 14वीं शताब्दी की "ब्लैक डेथ" प्रसिद्ध है।

       अब सामान्य तौर पर घरों में चूहे नहीं होते हैं। ये बात और है कि कहीं-कहीं इन्ही चूहों को एअरपोर्ट पर सामान की जांच-पड़ताल के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। 2018  में महाराष्ट्र में चूहे घोटाले को लेकर केंद्र और राज्य में बीजेपी की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने तंज कसा है। कहने का मतलब 'चूहे' राजनीति में भी शामिल हैं इनको हल्के में मत लीजिए।

          उस समय के लोगों पर आज के बुद्धिजीवी 'जागरूकता की कमी ' का आरोप लगाते हैं पर अब तो सब जरूरत से ज्यादा जागरूक हैं फिर भी ये महामारी कैसे और क्यों आ कर हावी हो गई ? इसका जवाब शायद ही किसी के पास हो।

      तो मैं बात कर रही थी साफ-सफाई या शुद्धता की। जब हम छोटे थे तो मम्मी ने कभी भी हमें दर्जी के वहां से सिल के आए कपड़े बिना धोए हुए नहीं पहनने दिए। पहनने से पहले उनको कुछ देर पानी में भिगो कर फिर धो कर सुखाया जाता और अगले दिन पहनने के लिए प्रेस करके मिलते थे। अब रेडीमेट या ऑनलाइन आते हैं उनको कौन-कैसे-कब पहनता है कोई नहीं जानता। आपने भी महसूस किया होगा कभी जब आप किसी कपड़े की दुकान पर जाते हों तो वहां कपड़ों से कैमिकल की गंध इतनी तेज आती है कि छींक भी आ जाती है या जरा भी सहन नहीं होती ,कभी-कभी तो जुखाम भी हो जाता है। दर्जी जब कपड़े सिलते हैं तो कपड़े जमीन पर भी गिरते हैं और उनका दिनभर का वही काम है तो वो कैसे हाथों से इनको बना रहे हैं, इसी सब से बचने के लिए उनके हिसाब से धोना जरूरी था। यहां मैं 'संस्कारों' की पोटली नहीं खोलूंगी वरना लेख आध्यात्म की ओर चला जाएगा और आध्यात्म अब लोगों को कम रास आता है।

      मम्मी ने एक और बात सिखाई ,किसी अनजान को या मांगने आने वाले को पानी आदि उसके वर्तन में देने के बाद शेष पानी को वापस घर में नहीं लाते। जब आप किसी के वर्तन में तरल पलटते हैं तो उसके वर्तन और आपके वर्तन की धार एक होती है तो अगर उसमें कैसे भी विषाणु होंगे वो आपको स्वतः मिल जाएंगे। बहुत से लोग बोतल या ग्लास से पानी 'आ' करके पीते हैं और बताते हैं कि-झूठा नहीं किया है आ करके पिया है। वो भी सही नहीं है ,अच्छा है आप ग्लास से सीधा पिएं जूठा करके। हमारे वहां मंगलवार को 'कुष्ठरोगी' आते हैं हमारे यहां से पैसों के साथ दूध-मट्ठा भी लेते हैं तो हम अंदाज से निकालते हैं और यदि बचता है तो उन्हीं को ज्यादा दे देते हैं या फिर हमारी धरतीमाता तो है ही सब ग्रहण करने वाली। ये नियम सभी चीजों में लागू होता है जिसके लिए जो निकाल दिया वो जहां तक बन पड़े वापस खुद के लिए नहीं रखते।

       ये तो कुछ उदहारण हैं हमारे देश की संस्कृति के। अब तो घरों में सालों हवन नहीं होते धूप नहीं जलती कि घर काला हो जायेगा दीवारों के मंहगे पेंट खराब हो जाएंगे। हमारी भाभियों ने जब बच्चों को जन्म दिया तो पूरे 10 -11 दिन उनके कमरे के बाहर ,लोबान (लोहबान-Frankincense जिसे ओलिबैनम भी कहा जाता है और ये बोसवेलिया पेड़ के राल से बनाया जाता है)-गंधक([Ne] 3s2 3p4) में राई वगैरह मिलाकर धुआं किया जाता था। जिससे किसी भी तरह का संक्रमण अंदर ना जा सके।अब बच्चे पैदा होते ही पीलियाग्रसित हो जाते हैं जबकि जन्म देने वाली माँ अत्यधिक जानकार और डॉक्टर- डाइटीशियन के सुझाए डाइट-प्लान पर चलतीं हैं करिए कुछ भी बस करने से पहले जैसी जरूरत लगे सोचिए-समझिए-परखिए फिर कीजिए।

इस ब्लॉग में आपने सैनेटाइजर के साथ ही गांव के लोगों की जागरूकता ,हिटलर, आगरा,लोबान-गंधक,प्लेग के अलग-अलग नाम ,चूहा ,पीलिया आदि के बारे में पढ़ा।

अपना खयाल रखिए ! जयहिंद

प्रतिक्रिया अवश्य करें।

  

4 comments:

  1. सुन्दर सटीक जानकारी

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  2. आपका लेख बहुत प्रभावशाली है जो आज और कल को जोड़ता है और वह भी तथ्यों सहित ।

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    1. आपका धन्यवाद मैम कि आप मेरे भावों से सहमत हैं।

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