शून्यता की ओर
मुझे लेखन क्षेत्र में आए हुए यही कोई १०-११ वर्ष हुए होंगे। पिछले ४-५ वर्ष से जब भी मैं किसी साहित्यिक आयोजन में होती हूँ तो मेरी कौनसी पुस्तक आई है की जिज्ञासा कहीं ना कहीं से आ ही जाती सो मैंने पहले बाल साहित्य देने का संकल्प लिया। इसी कड़ी में मेरी प्रथम पुस्तक "देवभूमि बाल काव्य सम्पदा" आई , जिसमें छः कविताएं उत्तराखंड को समर्पित हैं शेष भारत के किसी भी स्थान को लेकर रची गई हैं। इसके पीछे मेरे उत्तराखंड के शुभचिंतक बहन-भाई ही हैं जिन्हें लगा कि जब मैं यहाँ हूँ तो क्यों ना पहले यहाँ के नौनिहालों के ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन के लिए कुछ नए प्रयोग करूँ। परन्तु यह भी कटु सत्य है कि साहित्य या ज्ञान किसी क्षेत्र विशेष का नहीं होता वह तो सभी का साझा होता है।किसी भी पुस्तकालय में किसी भी क्षेत्र का साहित्य हो सकता है |
परिणामतः पुस्तक दिसम्बर २०२३ को सर्वभाषा ट्रष्ट से प्रकाशित हो कर आ गई परन्तु दुर्भाग्य से उसके ३-४ दिन बाद ही मेरी तीसरे नंबर वाली बड़ी भाभी "देवलोकवासी" हो गईं। लगभग ६-७ महीने सबकुछ थमा सा रहा ,उसके उपरांत अगस्त २०२४ को इस पुस्तक का प्रथम लोकार्पण "पी एमश्री बालिका इंटर कॉलेज हल्द्वानी नैनीताल " में माननीय शिक्षामंत्री धनसिंह रावत जी के हाथों हुआ,फिर इसमें ऐसे ही एक दो कड़ी और जुड़तीं गईं। मैंने पुस्तक कभी किसी को यूं ही नहीं बाँटी,जहाँ मुझे उपयोगिता लगी वहीं दी या किसी विद्यालय ने स्वयं ली उसे दी।
क्योंकि मेरा जन्म उत्तरप्रदेश के आगरा मंडल का है, किन्हीं
कारणों से ना चाहते हुए भी कभी-कभी भावनाएं वहां पहुंच जातीं हैं सो पिछले दिनों
एक पुस्तक मैंने जहाँ से इंटरमीडिएट किया वहाँ के G GIC की प्रधानचर्या को विद्यालय की बालिकाओं के लिए
उपहार स्वरूप दे आई और एक पुस्तक पिताजी जहाँ
के प्राध्यापक रहे वहां भी दे दी ,यहीं से मुझे याद आया कि मेरे पिताजी आगरा के
जगदम्बा इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज का नाम "सी पी शर्मा" के साथ लेते
थे। कहने का तातपर्य हैं कि उनका उठना-बैठना था सी पी शर्मा जी के समय इसी नाते
इसी फरवरी में एक पारिवारिक विवाह समारोह में गईं जो 'टेढ़ी बगिया" जगदम्बा
इंटर कॉलेज के पास ही है,
सो परिवार वालों
ने भी कहा कि एक पुस्तक यहाँ भी होनी चाहिए। उनसे बात की गईं तो उनकी ओर से उत्तर
आया कि "पुस्तक यदि उत्तराखंड को समर्पित है तो उसका यहाँ क्या औचित्य ?' अब जो मैं नाम ले रही हूँ
वह हैं ना ही उनके उस समय के कोई साथी और जो हैं वह अपने दादा जी के साथ वालों को
नहीं जानते या जानना नहीं चाहते |
इसी विडंबना का दूसरा रूप अभी २६ मई को,गोपाल दत्त भट्ट जी
पर हल्द्वानी में एक कार्यक्रम हुआ उसके दौरान आदरणीय "हयात सिंह रावत "
जी ने सभी से पहाड़ी भाषा पर काम करने का आग्रह किया साथ ही बाल साहित्य की कमी की
भी बात की। मैं रावत जी से साहित्य से संबंधित जानकारी के सहयोग लेती रहती हूँ सो
मैंने उन्हें अपनी पुस्तक भेंट की और उनको याद दिलाया कि अभी आप जो बाल साहित्य की
बात कर रहे थे तो उसी उपलक्ष्य में, मैं आपको ये पुस्तक भेंट कर रही हूँ देखिएगा। आयोजन समाप्त
होने के बाद जलपान के समय रावत जी ने मुझसे कुमाउँनी भाषा के ज्ञान के बारे में
पूछा और पहाड़ी भाषा में लिखने की बात की जिसके लिए मैंने यह कह कर असमर्थता जताई
कि "मैं इतने वर्षों में थोड़ा -बहुत समझ लेती हूँ ,लेकिन उससे साहित्य गढ़ना
एक बिलकुल अलग कार्य है जिस भाषा को आप ना के बराबर जानते है। हाँ यदि आपको मेरी
कविताएं ऐसी लगतीं हैं कि वो जन-जन तक पहुचें तो उसके लिए आप जिनकी भाषा पर अच्छी
पकड़ है उनसे अनुवादित करा सकते हैं फिर अपने अनुसार उपयोग कर सकते हैं। " इस
बात पर भी और अन्य लोगों ने अपने-अपने अनुसार अपने मत दिए जिनसे मैं कभी प्रभावित
नहीं होती।
ये इतना सब मैं
केवल मात्र इस समय की वास्तविकता सभी के समक्ष रखना चाह रही हूँ इससे अधिक और कुछ
नहीं क्योंकि अब मेरा स्वभाव ही नहीं कि मैं किसी से भी कोई राग-द्वेष रखूँ। मेरा
जो कार्य था मैंने किया और आगे जो मेरे करने योग्य प्रयास होंगे मैं करूंगी बाकी
तो समाज के अपने निर्णय हैं कि वह आने वाली पीढ़ी को क्या -कैसे-कब-कितना-क्यों
देना चाहते हैं या मात्र बातों से ही पेट भरना चाहते हैं।
कहने का तात्पर्य है कि ऐसा कार्य करते रहना चाहते हैं
जिसका कोई सकारात्मक परिणाम ना निकल सके और वो मात्र होता दिखता रहे।
धन्यवाद !
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