Sunday 26 December 2021

उपहास और बकवास की राह पकड़ता ,हास -परिहास

 

🙋शादी वाली रात की भोर बेला में, जबकि भावंरों के आखिरी फेरे ही बचे थे, पंडित जी के मंत्रोच्चार के ऊंचे स्वरों को लांघती चीख पुकार ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। बाहर पुलिस का एक सब-इंस्पेक्टर खड़ा डांट फटकार रहा था। वह बिजली विभाग में नियुक्त था और उसका आरोप था कि कॉलोनी के उस बारात घर में बिजली अवैध कनेक्शन से जलाई जा रही थी। घराती और बरात पक्ष वाले सुलह-सफाई में जुट गए। तनाव जब अपने चरम पर था तभी दरोगा जी ने एक जोरदार सेल्यूट झाड़कर खुद का परिचय बहरूपिए के तौर पर दिया। लोगों के हंसी ठट्ठे के बीच बख्शीश के 100 रुपये लेकर वह तो चला गया लेकिन वहां मौजूद बहुत से लोगों के चेहरों पर उसकी धमक देर तक बनी रही।

खुला मंच 






    वैसे तो बहरूपिया कला सारे देश में देखने को मिलती है लेकिन उत्तर से धुर दक्षिण तक इसे करने वाले लोगडीनोटीफाइड’ घुमंतू जनजातियों के हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह काम नट जनजाति के लोग करते आए हैं, जिनका दूसरा प्रमुख पेशा रस्से पर चलने जैसे करतब दिखाना रहा है। इतिहास के प्राचीन पन्ने इनके होने की गवाही देते हैं। ईसा पूर्व से लेकर 8वीं शताब्दी में लिखे जाने वाले ज्यादातर संस्कृत नाटकों मेंनटऔरनटीसूत्रधार से लेकर विदूषक तक की भूमिका अदा करते आए हैं। अकबर के काल में आगरा मुगलों की राजधानी बना और एक सुव्यवस्थित शहर की स्थापना हुई जिसकी आधारशिला पहले ही इब्राहिम लोधी रख गया था। आगरा में बसने के साथ ही राजस्थान और उससे जुड़े दूसरे प्रदेशों से जो कामगार पलायन करके आगरा पहुंचे, उनमें नट भी शामिल थे। कलाबाजी, करतब और बहरूपिया कला- तब भी उनके यही पेशे थे और इसकी एवज में होने वाली छोटी-मोटी कमाई उनकी आजीविका का स्रोत थी। आजादी के दूसरे दशक में जैसे-जैसे शहर और गांव के सांस्कृतिक परिदृश्य बदलते गए, मनोरंजन के तौर-तरीके भी बदल गए। आजादी के बाद की इस सांस्कृतिक मंदी के युग में बहरूपिए के करतब और बाजीगर के तमाशे मनोरंजन की सतह से गायब होते चले गए।  

बहुरूपिया 


          🙋दिल्ली के इंदिरा गांधी नेशलन सेंटर फॉर आर्ट्स में आयोजित राष्ट्रीय बहरूपिया पर्व में हिस्सा लेने आए उज्जैन के सरकारी बालिका विद्यालय में प्रधानाचार्य शैलेन्द्र व्यास का कहना है कि वे पिछले 32 साल से बहुरुपिया बन कर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। व्यास के मुताबिक यह कला मजहब से भी ऊपर है। मिजाज से बेहद मजाकिया व्यास ने,अपना नाम बदल कर ,स्वामी मुस्कुराके रख लिया है। उनके पास शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, सिंधिया, अकबर और पेशवा बाजीराव समेत हर काल के राजाओं की वेशभूषाओं का संग्रह है। उन्होंने बताया कि उनके लिए यह कोई व्यवसाय नहीं है, बल्कि संस्कृति को बचाने की सेवा है।




बहुरूपिया उत्सव 



    🙋ये वो बातें हैं जो हमारे आस-पास के तनाव -भारीपन या शुष्कता को कुछ कम करतीं हैं और हम सहज रहने का प्रयास करते हुए अपने आवश्यक कार्यों को निर्विघ्न सम्पन्न करते हैं। यूं तो आज के समय में मनोरंजन -हास -परिहास मानव समाज के लिए अतिआवश्यक है ,क्योंकि आज आदमी संबंधों में भी व्यापर या अधिक से अधिक फायदा चाहता है ,वो हर जगह दिमाग से सोचने लगा है ,संवेदनाएं घटती जा रहीं हैं परिणामस्वरूप उसे छोटी-छोटी बातों पर हंसी आना बंद हो गई है। हो सकता है आप विश्वास ना करना चाहें, व्हाट्सऐप,इंस्टाग्राम,ट्विटर के इस समय में मानव के हास्यरस वाली ग्रंथियां इतनी ज्यादा ठोस और कठोर हो गईं हैं कि हास्य रस की मुहर लगी हुई ये पंक्तियां भी अब किसी को हंसा नहीं सकतीं , जिसके चलते शरीर को प्रसन्न चित्त रखने वाले डोपामाइन सरीखे अवयव निर्माण की क्षमता भी घटने लगी है। परिणाम सभी के सामने हैं।

"विंध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे

 गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिवृंद सुखारे।

 ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी, परसे पद मंजुल कंज तिहारे,

 कीन्हीं भली रघुनायक जू जो कृपा करि कानन को पगु धारे!!"

अर्थात - रामचंद्र जी विंध्य पर्वत पे रहे हैं , सुन सारे तपस्वी  प्रस्सन्न हो गए ये सोच के कि जब प्रभु एक पत्थर को नारी बना सकते हैं तो यहां  तो सब पत्थर ही पत्थर हैं, कौन जाने हम योगियों की भी चांदी हो जाये इस  निर्जन वन में !!

         😡अब कुछ विशेष लोगों का मानना है कि आज के समय में हंसी तब तक नहीं आती जब तक कि माता-पिता के आतंरिक संबंध ,धर्म और आस्था के विषयों पर अनर्गल तर्क और आलोचना,फिल्म कलाकारों के वस्त्रों के आर-पार झांकने की चेष्टा ,किसी के भी सामने कुछ भी कहने की जिद ,हास-परिहास को छोड़ कुछ भी बेलगाम बोले जाने की जिद आदि-आदि को ही हंसी का सही रास्ता बता रहे हैं। जिसे इनदिनों स्टैंड अप- एकल प्रदर्शन करने वाला,मंच पर कला का एकल प्रदर्शन, के नाम से जाना जाता है।अभी हाल ही में हंसी-ठिठोली के नाम पर जावेद हबीब ने महिलाओं का सम्मान नहीं रखा। 

      जिनलोगों की स्टेंडअप कॉमेडी की दुकाने सुर्ख़ियों में हैं उनकी तस्वीरें साझा करने की अनुमति सर्वर द्वारा नहीं मिली है। 

          यहां किसी का भी नाम लेने से कुछ हासिल नहीं होने वाला पर ,अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी परोसने का नाम "हंसी "नहीं हो सकता। गलत को सही कहने के बड़े हंगामे होते आये हैं और ऐसे ही होते रहेंगे और यही गलत एक दिन पीछे रह जाते हैं और सही या उचित शाश्वत रहता है।

    जो लोग ये तर्क देते हैं कि जैसा समाज में हो रहा है दिखा रहे हैं उन्हीं में से एक ,आशुतोष राणा का उदहारण ले लेते हैं जिन्होंने एक कार्क्रम के दौरान कहा कि जब हम दर्पण देखते हैं 

और उसमें हमारे बाल ठीक नहीं हैं या कमीज,कुर्ते आदि के बटन खुले हैं जो हमें लगता हैं कि बंद कर लेने हैं तो बंद कर लेने चाहिए। कहने का तात्पर्य है जस का तस हू-वहू नहीं परोसना चाहिए। हंसी के पहले भी बहुत सारे साधन थे -सर्कस ,रामलीला आदि में कुछ-कुछ अंतराल में जोकर आता था और सबका मनोरंजन करता था। अब बात उचित हो या अनुचित,सर्वसुलभ है और बहुत समय तक रहती है तब इस बात का ध्यान रखना ही पड़ेगा कि बात का स्तर कैसा है। हर बात "हंसी-मजाक " का विषय नहीं हो सकती कभी भी। ही सारी शिक्षाएं एक ही साथ छोटे बच्चे को दी जातीं ,अगर ऐसा होता तो शिक्षा में प्ले ग्रुप और इंजीनियरिंग एक साथ चलता। जब प्रकृति ने अपना संतुलन बना रखा है तो मानव असंतुलन में उपलब्धि- ख्याति क्यों खोज रहा है ? इस क्षेत्र में अब से पहले महिलाऐं नहीं थीं। पर पिछले 10-15 साल से कुछ लड़कियों को लड़की होने में संतुष्टि नहीं बल्कि लड़कों जैसा बनने में ज्यादा अच्छा लगता है या मात्र इसी बात को वो अपना सर्वोच्च अधिकार मानती है।

     यहां जो फोटो और वीडिओ मैंने डाले हैं ये मेरी उत्तर प्रदेश में रहने वाले समय की यादों से मिलते -जुलते हैं ,जिनकी मैं भी साक्षी रही हूं। कहने का अर्थ यही है कि हंसने-हँसाने के बहुत से विकल्प हैं जरूरी नहीं कि आप कुछ ऐसा कहें जिससे किसी कि भी भावना आहात हों। जिस देश में जन्म ले ,रहें उसी देश का अपमान करें ठीक उसी के जैसा है जैसे बड़े होकर अपने माता-पिता अपने परिजनों का तिरष्कार करना। यदि आपको कुछ कमी या गलत लगता है तो आप कीजिए ना वो कमी पूरी ,उस गलत को सही कीजिए जो आपको अखर रहा है ,केवल हंगामा में क्यों लगे हैं ?

   आज तक के एजेंडा शो के उदहारण से आप खुद निर्णय ले सकते हैं जहां रवीना टंडन ,आशुतोष राणा और श्वेता त्रिपाठी थीं। श्वेता त्रिपाठी ने मानव स्वभाव या व्यवहार को मात्र सफ़ेद,काला और ग्रे ना कहकर सतरंगी कहा। अर्थात वो स्वीकार करतीं हैं कि मानव का स्वभाव कैसा भी हो सकता है। तब ये भी कहा जा सकता है कि उसी व्यवहार के अनुरूप ही उससे सामने वाले अन्य मनुष्य भी व्यवहार करने के लिए एक सीमा तक स्वतंत्र हो सकते हैं या होना चाहिए।

कब ,कहां ,क्या , कैसे ,कितना बोलना है इस पर बोलने से पहले जो विचार नहीं करेगा वहां  बखेड़ा खड़ा होना निश्चित है।

आपकी प्रतिक्रिया,का सदैव स्वागत है।

8 comments:

  1. सही कहा आपने। वाणी अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का गलत उपयोग ही बोल सकते है इसे। यहां कुछ महीनो पहले ही नट आए थे। और जादूगर भी आते है। जो खूब मनोरंजन करते है। पर अब कुछ नया नही लगता।
    हा पर यहां गुजरात में "डायरा" होता है। जो मनोरंजन के साथ ज्ञान भी देता है। हो सके तो देखना।

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  2. हम्म मुझे लगता है देखा है मैंने "डायरा" फिर से भी देखूंगी। मैं तो कहती हूं ज्ञान नहीं दे ना सही। शालीनता -संवेदना तो बनी रहने दें।

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  3. हाँ दीदी,आजकल हास्य के नाम पर लोग जो फूहड़ता परोस रहे हैं इसका खामियाजा आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा क्योंकि तब तक अपना धर्म, संस्कार, रीति रिवाज केवल एक हास्य विषय से बढ़कर और कुछ भी नहीं होंगे। इसका जीता जागता उदाहरण हम अपने मुख्य त्योहारों की दुर्दशा को देख सकते हैं। पहले होली, दीपावली और अन्य त्योहारों की आहट महीनों पहले ही सुनाई पड़ने लगती थी औऱ अब त्यौहार कब आता है कब चला जाता है पता ही नहीं चलता।

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  4. सही कहा अतुल , हमें केवल अपने स्तर से जो कर सकते हैं करना चाहिए इसे सम्हाले रखने के लिए।

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