🔔जब हमसे बड़े हमारे जीवन से चले जाते हैं तो उन पूर्वजों की हमें बहुत सी बातें याद रह ही जातीं हैं पर कुछ बातें ऐसी भी होतीं हैं जो हमने नहीं देखी पर सुनने में इतनी रोचक और रोमांचकारी होतीं है कि आज की सरपट दौड़ती जिंदगी में विराम लगाते कोरोना के डर से भी भूलती नहीं बल्कि कहीं ज्यादा सबल हो कर याद आतीं हैं। ऐसी ही कुछ हमारी दादी से जुड़ी हुई बातें हैं जो मुझे लिखने के लिए कभी से विवश कर रहीं थीं। लीजिए प्रस्तुत है दादीसंसार
" चलो जाओ अब शाम को आना ! कहा ना अब नहीं है और रोटी इतनी ही थी सो तुम्हें देदी "
"पानी पीना हो तो बाहर जा कर पी लेना "
"अब शाम को और बनाएगी ब्याउली(बहू) फिर खाना आ कर, चलो जाओ! जाओ! ……जल्दी!!!! "
"और कहीं देखना अब ……"
ये संवाद हैं श्रीमती अयोध्यादेवी मिश्रा ,यानि कि हमारी दादी जो 100 वर्ष से ज्यादा उम्र गुजार कर परलोकवासी हुईं हैं।मुझे याद है ,वो अपना नाम अजुध्या बतातीं थीं , ये मैं आपलोगों पर छोड़ती हूँ कि आप अंदाजे लगाइये कि ये संवाद किससे कहे होंगे उन्होंने ?
मुझे ये याद नहीं कि उनके वाक्यों की भाषा -शैली कैसी थी ,हाँ उनके कुछ -कुछ शब्द अच्छे से याद हैं -
जैसे जब वो किसी से ज्यादा दिन बाद मिलतीं या ऐसे ही पास रहने वाले अपने परिजनों पर प्यार उमड़ता तो -हासी बेटा,हासी बेटी जैसे शब्दों का प्रयोग पीठ पर हाथ से सहलाते हुए करतीं। जब उनको थोड़ा कम दिखाई देने लगा तो अपनों के चेहरे ,हाथ आदि की पूरी पड़ताल करतीं।कपड़ों की जांच-परख करतीं।जब घर का कोई छोटे आकर का सामान खो जाता तो वो कहतीं कि अमुक सामान में एक "बोलतापुस" होना चाहिए मतलब वो वस्तु स्वयं ही कह दे कि मैं यहां पड़ी हूँ मुझे उठा लो। ये शब्द उनका स्वयं का ही गढ़ा हुआ था।
मैं उनके साथ ज्यादा नहीं रही हूँ ,हाँ एक बात बहुत अच्छे से याद है कि वो मेरे लिए बेला-चमेली से सफ़ेद कपड़े की गुड़िया बनाया करतीं थीं। उसके चेहरे पर ये काली-काली ऑंखें ,सुर्ख लाल धागे से उकेरे होंठ, सर पर मम्मी के पुराने चुटीले के बाल और पहनने को जरी की साड़ी। चौंकिए मत ये जरी या तो नई साड़ी से निकाला हुआ "कैंच" (कपड़े का वो हिस्सा जो कुछ आड़ा-टेड़ा होता हो )होता था या फिर जो साड़ी पुरानी हो जाती थी उसकी जरी होती थी। मम्मी बतातीं थीं कि उनकी शादी के समय भी हमारी दादी वैसी ही दिखतीं थीं जैसी हमलोगों ने देखीं मतलब हलके कद-काठी की एकदम गोरा रंग ,कम और मिश्री सी बोली। उतनी ही झुर्रियों वाला चेहरा जितना इस तस्वीर में दिख रहा है। इस सबका एक ठोस कारण ये बताया जाता है कि हमारे दादी- बाबा की बहुत समय तक कोई संतान जीवित नहीं रही थी तो आगरा के पास से कासगंज पर कछला गंगा घाट है वहां तक बाबा ने पैदल चलकर 12 पूर्णिमा गंगा स्नान किया तब हमारे सबसे बड़े ताऊ जी बचे ( पहली संतान के रूप में )। ये आस्था और विश्वास वाली बात है।
गंगा का कछला घाट |
वो अपने नाम को पूरी तरह चरितार्थ करतीं थीं। जैसे अयोध्या -जिसे युद्ध में न जीता जा सके। अर्थात वो युद्ध करना ही नहीं चाहती थी। जैसे अयोध्यावासी कभी युद्ध के पक्षधर नहीं रहे। उसी प्रकार वह दुनिया भर के सारे प्रपंचों से दूर रहतीं थी।नाजुक इतनी ज्यादा कि बैलगाड़ी में भी चक्कर आने लगते और उल्टियां हो जातीं थीं। कड़क और खरे वाक्य तो उनके स्वभाव में ही नहीं थे। यहां तक कि दरवाजे पर खड़े " कुत्ते " से वो कुत्ता नहीं कहतीं थीं। जब कभी उनके चारों बेटों में से कोई बेटा किसी बात पर असंतुष्टि जताते तो वो कहतीं कि " भागवान करे तुमलोगों के पास भी चार-चार बेटे हों "
दादी की एक बहुत ही कमाल बात हमें सुनाई गई -जब वो शादी के दूसरी या तीसरी बार अपनी ससुराल आई। हमारा गांव रोड से लगभग तीन गांव के बाद 20-25 किमी की दूरी पर पड़ता होगा। उस समय दो गांव बाद कुछ एकदम बंजर स्थान पड़ता था। जहाँ "बेड़िया "लोगों का वर्चश्व था। एक जाति समुदाय है। जिसे बेड़ियाजनजाति/समुदाय के नाम से जाना जाता है, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ इलाको में रहते हैं। जो मुख्यतः बुंदेलखंड प्रान्त के अंतर्गत आते है। बेड़िया जनजाति सर्वप्रथम बिहार झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के कुछ राज्यों में पाई गयी। माना जाता है कि ये समुदाय मोह्दिपहड़ में रहते थे तथा बेद्वंशी राजाओ के वंशज थे। ये लोग अपनी उत्पत्ति गंधर्वो से मानते है। इसी तरह से कई कहानियां इनके उत्पत्ति को लेकर विख्यात है। परन्तु वास्तविकता से अभी भी सभी अनभिज्ञ है। इस जनजाति को कई नामों से जाना जाता है, जैसे मांझी , शेरशाहबेड़िया, भाटिया, माल्दाहिया और बेड़िया। बेड़िया शब्द हिंदी भाषा के बाहाडा से लिया गया है। जिसका अर्थ है जंगल में रहने वाले लोग या जंगली निवासी ।
2011 जनगणना के अनुसार इनको अनुसूचित जनजाति में नामित किया गया है। इनकी जनसँख्या 46775 है। यह एक घुमक्कड जनजाति है, जिसको अपराधिक जनजाति अधिनियम के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है।इनकी महिलाऐं "राई नृत्य "के लिए प्रसिद्द हैं। इसका नाम राई नृत्य इसलिए पड़ा क्योंकि पुराने समय में मशाल की रोशनी में ये किया जाता ,तो मशाल को जलते रहने के लिए उसमे बराबर "राई ( एक प्रकार की सरसों ) डाली जाती थी।
तो बड़े ही नक्कासीदार घर हुआ करते थे इनके वहां। इनका जिकर मैंने अपने एक लेख " द्रोणनगरी" में भी किया है ,वही "हसीन दिलरुबा "वाला ज्वालापुर अभी भी आप यहाँ उत्तराखंड में भी इनके घर देख सकते हैं।
तो ये तो हो गया "बेड़िया लोगों" का परिचय तो जब दादी अपनी ससुराल किसी अपने से बड़े के साथ आ रहीं थी और अकेली रहीं होंगी पीछे बैठने वालों में। उस समय जब बहू आती थी तो साथ में लगभग एक टाइम से ज्यादा का खाना मतलब पूड़ी और गुना लाती थी जिसे अपने पहचान में बांटा भी जाता था। बांटने का एक उद्देश्य ये भी होता होगा, जिससे ये पता चल सके कि घर की बहू मायके से ससुराल आ गई। "पूड़ी पर गुना देना " एक मुहावरा भी है। गुना मीठे आटे की एक छल्लानुमा आकृति बनाई जाती है और फिर उसे तला जाता है। उत्तरप्रदेश में आज भी इसे बहू-बेटी के साथ देना शुभता की निशानी माना जाता है
वो पूड़ियाँ एक टोकरी में होतीं थी और खूब सजे-धजे कपड़े से बंधी होती थी। रास्ते में इन्हीं बेड़ियों ने चलती बैलगाड़ी से धीरे-धीरे करके सारी पूड़ी और गुना (मीठे आटे की एक रिंग नुमा बना कर घी-तेल में पूरियों की तरह धीमी आंच पर तली जाती है ,ये शुभता का प्रतीक मानी जाती है आज भी )निकाल लिए और हमारी भोली दादी ने उन्हें चूं भी न किया। जब दादी घर पहुंची तो महिलाओं ने खाली टोकरी देखी ,आप खुद ही सोचिए क्या हुआ होगा ? तो साहब हमारी दादी ने बता दिया कि –
गुना |
“वो सारी पूड़ियाँ तो बेड़ियों ने, कुछ खाई ,कुछ ले गए और खाली टोकरी छोड़ गए !!!!!!!!!! “आज तक सब हैरान हैं कि कोई कितना भोला हो सकता है ? पर वो थीं। तो मुझे मेरी अयोध्या सी दादी को बहुत-बहुत नमन !
हमने इस लेख में बोलतापुस ,अयोध्या नगरी ,अयोध्या शब्द का अर्थ ,आस्था और विश्वास का उदहारण ,बेड़िया जाति उसका विख्यात नृत्य और घर बनाने की कारीगरी उनके कार्य आदि की चर्चा की आशा है आपके समय का अच्छा उपयोग हुआ होगा।
दादी |
राई नृत्य |
कितनी मीठी यादे है ये ।क्या दिन थे वो ।
ReplyDeleteJi aryan ji ,thanks for comment
Deleteआपकी दादी भी कहा जाए तो तकनीकी सोच रखती थी। आप समझ ना पाए। बोलतापुस से उनका मतलब GPS with Speaker था।
ReplyDeleteहां माना जा सकता है। पापा का जब भी कोई सामान खोता तब वो भी सबके साथ ढूंढने में लग जातीं, जब वो वास्तु मिल जाती तो उससे बड़े प्यार से कहतीं कि तुम यहाँ चुपचाप बैठे हो बोल देते कि हम यहां हैं ले जाओ हमें उठाकर तो क्या बुरा था। मम्मी बतातीं हैं कि दादी की इस बात पर सब खूब हंसते।
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