साहित्य का कर्तव्य
"कोरोना को हमारे देश में लगभग तीन साल हो गए हैं। आरम्भ में लगता था जैसे अब सबकुछ परिवर्तित -परिमार्जित हो जाएगा। दूषित मानसिकता और कृत्य सभी गर्त में चले जाएंगे। पर जैसे-जैसे स्थिति समान्य होने लगी वैसे-वैसे नकारात्मकता पुनः अपने चरम पर आने लगी है। पिछले वर्षों से समाज में कुछ विचार ऐसे रच-बस गए हैं जैसे दूध में मिलावटी दूषित पदार्थ। समाज विरोधी कार्य और मनमानी करने की स्वछंदता को ही कुछ वर्ग ने प्रगति की सीढ़ी बना लिया है। पुराने विचार और मानसिकता परिवर्तित होना बुरा नहीं है परन्तु उनका समयानुसार परिमार्जन किए बिना त्यागना या उनको अनुचित ठहरना भी उचित नहीं है। कुछ ऐसा ही इन दो कहावतों -"खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देख कर" और "पुस्तक का ऊपरी आवरण देखकर पुस्तक के बारे में फैसला ना करें", के साथ हो रहा है। कहीं भी किसी भी विवाद का कारण बने हुए हैं ये दोनों वाक्य। इस लेख में बीते जमाने के दो सशक्त लेखकों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही उनके विषय की औचित्यता पर बात की गई है।"
02 जुलाई 2021 को आई फिल्म "हसीन दिलरुबा " जो ब्रिटिश लेखक रोआल्ड डहल ने 1954 में लिखी। जिसे प्रकाशन की अनुमति नहीं मिली लेकिन कुछ समय बाद हार्पर की पत्रिका में इसे प्रकाशित कर दिया गया। कुछ ऐसा ही इस फिल्म में दिखाया गया कि फुटपाथ से खरीदे सस्ते साहित्य को पढ़कर एक बेहद डरावनी और निर्मम घटना को अंजाम दिया गया।
कहने का तातपर्य इतना मात्र है कि साहित्य का अर्थ, जो जी में आए वो कलम और कागज को बताना नहीं है साहित्य का कर्तव्य है कि समाज के लिए क्या देय है और क्या नहीं ,इसका ज्ञान-भान साहित्यकार को रखना आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर समाज की दशा ठीक वैसी ही रहेगी जैसे एक अबोध बालक के हाथ में, धार की ओर से पकड़ा हुआ चाक़ू अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप प्रकर्तिवादी रहना चाहते हैं या यथार्थवादी।
👉कुछ ऐसा ही साहित्य आज से 100 वर्ष पहले समाज को मिलना शुरू हुआ होगा। सआदत हसन मंटो 11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955 उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानियों में अश्लीलता के आरोप के कारण मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था, जिसमें से तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और बनने के बाद, लेकिन एक बार भी कुछ साबित नहीं हो पाया। उनकी बदनाम कहानियों पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया। बार-बार उनकी उन पांच कहानियों धुंआ, बू, ठंडा गोश्त, काली सलवार, ऊपर नीचे और दरमियां की बात की गई है। जिसकी वजह से उनपर अश्लीलता फैलाने का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया।
लगभग 19 वर्ष बाद एक और साहित्यकार का जन्म हुआ -श्रीकांत वर्मा 18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986 का जन्म बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हुआ। वह गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ',1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1963 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये। उपन्यास - दूसरी बार (1968),कहानी-संग्रह - झाड़ी (1964), संवाद (1969), घर (1981), दूसरे के पैर (1984), अरथी (1988), ठंड (1989), वास (1993) साथ (1994) और कल । यात्रा वृत्तांत - अपोलो का रथ (1973)।संकलन - प्रसंग।आलोचना – जिरह (1975)। साक्षात्कार आदि एक विस्तृत सूची है गद्य साहित्य की भी।
जाने के इतने सालों बाद ,ज़िंदगी भर कोर्ट के चक्कर लगाने वाला, मुफलिसी में जीने वाला, समाज की नफरत झेलने वाला मंटो आज खूब चर्चा में है उन पर फिल्में बन रही हैं,उनके लेखों को ढूँढा जा रहा है,अभी कुछ सालों पहले ही मंटो के लेखों का एक संग्रह ‘व्हाई आई राइट’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद कर निकाला गया है। इसका अर्थ ये नहीं कि उन्होंने जो भी लिखा है वो सभी अच्छा या सकारात्मक है। बहुत से तथ्य ऐसे होते हैं जो जस के तस समाज के आईने में रख कर भी परिवर्तित नहीं होते। मंटो को लिखे हुए इतना समय हो गया तो कौनसे हालात बदल गए हैं ,कितने प्रतिशत लोग तब पाशविक प्रवृत्ति के थे और कितने अब हैं सभी जानते हैं। मीटू पर इतनी चर्चा और खींच-तान हुई पर आज भी सब वहीं खड़े हैं जहां से चलना शुरू हुए थे।
इसका अर्थ ये नहीं कि समाज के इस घिनौने पक्ष को उजागर ना किया जाये पर सर्वोत्तम यही होगा कि उजागर करने से कहीं ज्यादा जरूरी है कि इसे कम करने के प्रयास किए जाएं ,नहीं तो कोई लाभ नहीं क्योंकि मानव कहां -कितना और क्यों गर्त में जा रहा है ये सभी जानते हैं। यदि ये तर्क दिया जाए कि साहित्य इसे कैसे कम करे तो अभी के अभी इस लेख को पढ़ने वाले अपने-अपने गरेवान में झांक कर देखें कि कौन इस तरह की गन्दगी समाज में फैला रहे हैं और कौन इससे अपने को निर्लिप्त रख पा रहे हैं। सब जानते हैं कि आज साहित्य भी इस तरह की हवस से बचा नहीं है।
जहां मंटो ने अपनी कहानियों में हर बात को उजागर किया ,वहीं श्रीकांत वर्मा ने अपनी चंद कहानियों और एक उपन्यास या आत्मकथा में एक पुरुष एक महिला के लिए क्या सोचता है और वह एक महिला के शरीर में क्या और क्यों सबसे ज्यादा देखता या देखना चाहता है वाली सोच उजागर की है जिससे पुरुष की बहुत क्रूर और शर्मनाक मानसिकता सामने आती है इससे ज्यादा कुछ नहीं। 60-70 वर्षों में भी समाज में एक स्त्री के लिए एक पुरुष की श्रीकांत वर्मा की कहानियों जैसी या स्वयं उनके जैसी सोच है तब उस समय उनके लिखने का कोई लाभ कैसे माना जा सकता है। उनकी कहानी में जहां भी महिला आई उसी समय एक सबसे जरूरी विषय उस महिला के वक्षस्थल आए ,उनका लेखक की इच्छानुसार वर्णन हुआ।
ये कौनसे साहित्य की मांग है ? फिर वो महिला चाहे रास्ते में चल रही है ,उठ-बैठ रही है ,टाइपराइटर से टाइप कर रही है या उनकी स्वयं की पत्नी है। जहां मंटो ने अधिकतर कहानियों में स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंध या अनैतिक सम्बन्ध दर्शाए वहीं श्रीकांत वर्मा ने महिलाओं के शरीर का अनावश्यक वर्णन किया। कुछ कहने वाले आजकल ये भी कहते हैं कि पिछले एक दशक में उनकी कीमत सही ढंग से समझी गई और उन्हें मान देना शुरू किया गया है। उसका कारण ये भी है कि समाज अब मूल्यों और मर्यादाओं से पूरी तरह मुक्ति चाहता है ,उसका परिणाम चाहे जो हो उसे इससे भी कोई लेना देना नहीं।
श्रीकांत वर्मा द्वारा दिखाए गए स्त्री-पुरुष सम्बन्ध वर्त्तमान में और अधिक लिसलिसे दिखते हैं उनके समय से कहीं अधिक मात्रा में हो रहा है ये सब और सबने इसे सामान्य मान लिया है स्वीकार कर लिया है, समाज का एक हिस्सा बन गया है वो सब। आज अधिकतर महिला समाज पढ़ा-लिखा और जागरूक है तब भी जो लड़कियां अपने राज्य या शहर से दूर पढ़ने जातीं है उन्हीं में से कुछ अपनी आवश्यकता को पूरा करने ,कमरे का किराया देने आदि के नाम पर स्वेच्छा से अपने शरीर को किसी को भी देने की हिम्मत रखतीं हैं। तब आप इस मानसिकता को कैसे दूर या सुधार सकते हैं या कि बिना कुछ सोचे-समझे उनके इस कृत्य पर एक कहानी या उपन्यास भी आप ही लिखेंगे और समाज को गन्दा बताकर दुत्कारने का काम भी आप ही करेंगे।श्रीकांत से कुछ मिलता-जुलता ही ,वर्तमान के बेस्ट सेलर और युवाओं के पसंदीदा लेखक चेतन भगत ने भी साहित्य जगत को दिया है। स्त्रियों की शारीरिक बनावट का बखान करके।
निष्कर्ष
कहा जाता है कि लिखने वाला चला गया पर उसको सुनाने का काम अभी तक बंद नहीं हुआ। तो जिसने समाज को जो दिया है उसकी चर्चा तो अनंतकाल तक होती ही रहेगी और होनी भी चाहिए। उनकी कहानियों में लगता है कि सभ्यता और मानव की पाश्विक प्रवृत्तियों के बीच जो द्वंद है, उसे उघाड़कर रख दिया गया है। सभ्यता का आवरण ओढ़े मानव समाज को चुनौती देती भले प्रतीत होती हों उनकी कहानियां परन्तु उनकी कहानियों ने वो परिवर्तन नहीं किए जो वो चाहते होंगे। जिसके लिए उन्होंने इतनी जोखिम उठाई। मैत्रेय पुष्पा ने 'गुड़िया भीतर गुड़िया ' उपन्यास में जिस वर्ग का बखान किया है वो हमने बहुत निकट से देखा है। ये सभी मानसिकताएं हैं जो स्वयं मानव बदलेगा वो भी जब वो समझेगा या चाहेगा बदलना ,यहां समझाने से कोई नहीं समझता है।
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